गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

तोड़ो-तोड़ो, जोड़ना मुश्किल है

इन दिनों कुछ लोग जोड़ तोड़ में लगे हैं। ये लोग अपने अगुवा से तोड़ने की कला सीख चुके हैं। और अब अपने स्तर से प्रयास भी कर रहे हैं कि कैसे तोड़ा जाए? अगुवा ने रास्ता दिखा दिया है। और ये ‘कुछ लोग’ अब उस रास्ते पर चल पड़े हैं। ‘कुछ बड़े लोग’ उनके तोड़े जाने का समर्थन भी कर रहे हैं। वे इस बात को पूरी तरह भूल चुके हैं कि जब घर टूटता है तो परिवार के लोगों को मुश्किलों का ही सामना करना पड़ता है। संयुक्त की जगह एकल परिवार को ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। लेकिन वे लोग तोड़ने में लगे हैं, और जब तक तोड़ नहीं लेंगे, तब तक कोशिश करते रहेंगे। हालांकि जिसको कामयाबी मिली है, वो अभी भी पूरी तरह से खुश नहीं हैं। वो तोड़े जाने पर मुहर लगाए जाने का इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि बिना मुहर के सब बेमानी है। हालांकि तोड़े जाने के आश्वासन भर से उन लोगों की नींद उड़ी हुई है, जो इस कतार में खड़े थे। अब उनकी आकांक्षाएं हिलोरें मारने लगी है। अब उन्होंने भी आमरण अनशन का रास्ता अख्तियार कर लिया है। तोड़ने के लिए आमरण अनशन का रास्ता अब बेहद आसान लगने लगा है। लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था, तब महात्मा गांधी ही आमरण अनशन करते थे, लेकिन अब तो कोई भी आमरण अनशन करने लगा है। कुछ लोगों ने अपनी बात मनवाने के लिए ये बढ़िया रास्ता चुन लिया है। ये दीगर बात है कि इक्का दुक्का लोगों को ही ये रास्ता रास आया है। एक महिला अपनी मांग मनवाने के लिए दस साल से आमरण अनशन पर है, लेकिन उसे नसों के जरिए दवा पानी और खुराक देकर जिंदा रखा जा रहा है। दरअसल वो तोड़ने की बात नहीं करती, वो राजनेता नहीं है, इसलिए उसकी सुनने वाला कोई नहीं। लेकिन तोड़ने वालों का अनशन कामयाब हो रहा है। देखादेखी और लोग भी आमरण अनशन पर उतारू हैं। कई बरसों से ये लोग सोए हुए थे। उन्हें लगता था तोड़ने की पाॅलिसी कामयाब नहीं होगी। इसलिए वे सुस्त थे। लेकिन तोड़ने के सिर्फ एक आश्वासन ने उनकी नींद उड़ा दी। अब वे तोड़ने के लिए जी जान लगाने की सोच रहे हैं। उन्होंने पहले भी तोड़ने की कोशिश की है, लेकिन कामयाब नहीं हुए। दरअसल, उन्होंने पहले जान ही नहीं लगाई थी, लेकिन जब एक जान लगाने के बाद तेलंगाना टूटने की आहट सुनी तो हिम्मत आ गई है, अब वे भी जान लगाने को तैयार हैं। सब तोड़ने में लगे हैं, जोड़ने की पहल करने वाला कोई नहीं है। जो था वो दशकों पहले चला गया। जोड़ने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, इसलिए हर कोई तोड़ने में लगा है, अगर सफलता मिली तो पौ बारह है, नहीं मिली तो भी दिक्कत की बात नहीं है। राजनीति चल ही रही है। चलती रहेगी। लेकिन उन्हें उपर पहुंचना है और उपर। इसलिए सब मिलकर तोड़ने में जुट गए हैं। पहले के टूटे से कोई सीख नहीं ले रहा है। कुछ लोग तो टूटे को ही फिर से तोड़ने में लगे हैं। पता नहीं कितनी बार तोड़ेंगे और टूटते टूटते कुछ बचेगा भी या नहीं?

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

सम्मानित होने का सपना

एक सम्मान समारोह चल रहा था। देश के कोने कोने से अपने अपने क्षेत्र के दिग्गज लोग पहुंचे थे। सबको सम्मानित किया जाना था। सभी शांति से बैठे थे। इस तरह के भारतीय कार्यक्रमों की परम्परानुसार ही अभी मुख्य अतिथि के आने में टाइम था। अगर कार्यक्रम समय पर शुरू हो जाए तो आयोजकों का तो पता नहीं, लेकिन मुख्य अतिथि की तौहीन जरूर हो जाती है। सो भला, सम्मानित होने की मंशा पाले दिग्गज शांति से इंतजार कर रहे थे कि कब मुख्य अतिथि आएंगे और कब वे उनसे सम्मानित होकर गौरवान्वित महसूस करेंगे। ‘कर्मण्ये वा धिकारस्ते, मा फलेशू कदाचन्’ के ठीक उलट ये सभी बिना कर्म किए ही फल की इच्छा रखते थे। क्योंकि अब कर्म करने वालों को कोई नहीं पूछता, हामी भरने वालों की, चमचागिरी करने वालों की चांदी ही चांदी दिखाई पड़ती है। इनके साथ ही साम, दाम, दंड, भेद के सहारे भी लोग पता नहीं क्या क्या हासिल करते देखे जाते हैं। सो सम्मान पाने वालों ऐसे लोग ज्यादा थे जिन्होंने अपने जीवन में कभी सम्मान पाने लायक काम नहीं किया था, लेकिन वो संस्था उन्हें सम्मानित करना चाहती थी, और वे भी खुद को सम्मानित होने के गौरव को महसूस करना चाहते थे, सो एक ही बुलावे पर बिना भाव खाए सम्मान समारोह में चले आए थे। सम्मानित होने वालों में करीब करीब सभी क्षेत्रों के लोग थे। कुछ सरकारी तो कुछ प्राइवेट नौकरीपेशा। सबको सम्मानित होना था सो इंतजार कर रहे थे। इनमें कुछ ऐसे सरकारी कर्मचारी भी थे, जो महंगाई से निपटने के मुद्दे पर हो रही सरकारी बैठक छोड़कर सम्मान पाने आए थे। अब सोचिए जरा, उन कर्मचारियों की बीवियों को अगर ये बात मालूम हो जाए तो उनका क्या होगा? आप कुछ भी इधर उधर का सोचें, उससे पहले जान लीजिए कि दो बातें होंगी। अगर पति ईमानदार होगा तो घरवाली की मार या डांट (जिसकी भी उसे आदत होगी) वो झेलनी होगी, लेकिन अगर बेइमान होगा तो कोई बात नहीं, क्योंकि तब उनके घर महंगाई का ज्यादा असर तो क्या बिलकुल भी असर नहीं होगा। क्योंकि सरकारी महकमों का भ्रष्टचार किसी से छुपा है भला? और अगर वो ईमानदार होगा, तब भी बच जाएगा, क्योंकि तब वो इतनी जरूरी मीटिंग छोड़कर सम्मान लेने जाएगा ही नहीं। खैर, अब ईमानदार हो या बेईमान, ये विषयांतर हो गया। बात सम्मान समारोह की हो रही थी, तो तय समय से करीब दो घंटे की देरी से मुख्य अतिथि आए तो, लेकिन दो मिनट में ही अपनी बात कहकर, नहीं नहीं, थोपकर निकल लिए। और जो दिग्गज उनसे सम्मानित होकर गौरवान्वित महसूस करने का ख्वाब देख रहे थे, वे ख्वाब ही देखते रह गए।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

कला के बिंब

पिछले दिनों दिल्ली हाट गया था। यूं ही घूमते घूमते नजर पड़ी स्टॉल नंबर इक्यावन पर जहां हस्तशिल्प कलाकारी का अद्भूत नमूना देखने को मिला। ये स्टॉल लगाया था छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के मंगलराम और जगतराम ने। मंगल राम पेशे से बढ़ई हैं और जगत राम कलाकार। दोनों ही पेशों का एक दूसरे से दूर दूर तक का रिश्ता नाता नहीं है। लेकिन जीने की जद्दोजहद ने दोनों को एक साथ ला खड़ा किया। और अब दोनों साथ काम करते हैं, और जीविका चलाते हैं। कहते हैं उपरवाले ने जब पेट दिया है तो भरेगा भी वही। कुछ ऐसा ही इन दोनों के साथ भी है। बढ़ई और कला के मेल से इन्होंने जो निर्माण किया है, वो देखने लायक है। इन दिनों दोनों ही ’दिल्ली हाट’ में अपनी आजीविका के जुगाड़ में लगे हैं। इनके स्टाॅल पर कुछ चीजें बांस की बनी हैं तो कुछ लकड़ी की। बांस से बना गुलदस्ता, जिसमें फूल सजाए जा सकते हैं। लकड़ी से बनी मछली, जो किसी भी महंगे से महंगे शो केस की शोभा में चार चांद लगा सकती है। बिजली के बल्व पर लगने वाले शेड और गमले इनके स्टाॅल की खासियत हैं। आप ये जान कर चैंक जाएंगे कि ये शेड और गमले किस चीज से बने हैं। आमतौर पर लोग वहां तक सोच भी नहीं सकते, जहां से इन दोनों ने अपनी कला की जमीन तलाश की है। जी हां, इन दोनों ने लौकी और कद्दू के सूख चुके बाहरी आवरण पर कलाकारी करके उसे महंगे घरवालों का सजावटी सामान बना दिया है। जगतराम का कहना है कि पेट की चिंता में यूंही एक दिन भटकते भटकते लौकी, कद्दू के सूखे बाहरी आवरण पर नजर पड़ी, और बस तभी उसे आशा की किरण दिखाई दी। जगतराम ने मंगलराम से बात की, और अपनी कला को एक बढ़ई के औजारों के सहारे इन पर उकेरने की कोशिश शुरू कर दी। जल्द ही इनकी कोशिश रंग लाई, और दोनों ने मिलकर घिया और लौकी के सूख चुके बाहरी आवरण को लैंप शेड का रूप दे दिया, घर में लटकाने वाले कम वजन के गमले बना दिए। लेकिन इनके स्टॉल पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वो थी लकड़ी से बने तीर कमान और तलवार। जिस पर इन्होंने बढ़िया कलाकारी भी की थी। पूछने पर इन्होंने बताया कि ये तो ऐसे ही बना लिए गए। लेकिन ये ऐसे ही नहीं बने हैं। दरअसल ये तीर कमान और तलवार अब इनके जीवन का हिस्सा हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला देश के नक्सल प्रभावित जिलों में से एक है। इस जिले में नक्सलियों के प्रभाव का अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि छब्बीस सितंबर की सुबह दिनदहाड़े बीजेपी सांसद बलिराम कश्यप के बेटे तानसेन कश्यप की हत्या हो जाती है, और कोई पकड़ा तक नहीं जाता। वो भी तब जबकि देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम राज्य की सुरक्षा व्यवस्था का जाएजा लेने के लिए एक दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के दौरे पर थे। इससे पहले बलिराम के इकतालीस साल के मंत्री भाई केदार कश्यप को भी नक्सलियों ने उठा लिया था। उन्होंने सरकार की ओर से उनकी सुरक्षा में तैनात सुरक्षाकर्मियों तक को नहीं बख्शा था। प्राकृतिक संसाधनों के लिए इस जिले का इतना नाम नहीं है, जितना ये जिला नक्सलियों के लिए बदनाम है। बस्तर मूल रूप से आदिवासी बहुल जिला है, जहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है। इसके बाद भी यहां के लोगों का जीवन स्तर वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए। यहां के लोगों को जीने की मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिल पाती। ऐसे में इन्हें अपने हक में लड़ने वाले नक्सलियों का साथ राज्य सरकार के नुमांइदों के साथ से ज्यादा अच्छा लगता है। फिर चाहे प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम नक्सलियों से निपटने के लिए चाहे जितने भी यत्न करें, इन्हें फर्क नहीं पड़ता। असल लड़ाई अपनी जमीन बचाने की है, और जो भी उसमें इन आदिवासियों का साथ देगा, वही इनका अपना होगा, फिर तरीका भले अहिंसक क्यों न हो? बस्तर के आदिवासियों के लिए नक्सली उनके रक्षक हैं। उनकी बेशकीमती जमीन के रक्षक हैं। उनके टूटे फूटे घरों के रक्षक हैं। फिर रक्षा चाहे जैसे हो, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। अक्सर ऐसा होता है कि हम आप जिन चीजों के संपर्क में आते हैं हमारे बच्चे भी उनके इस्तेमाल और उनकी खूबियों से परिचित होते रहते हैं। ऐसे में अगर रक्षक के हथियार यहां के अबोध, अपढ़ बच्चों के हाथ के खिलौनों में तब्दील हो जाएं तो इसमें आश्चर्य क्या? और ऐसी ही कुछ वजहें हैं कि जगतराम और मंगलराम की कलाकारी के नमूनों के बीच आदिवासियों और नक्सलियों के हथियार भी खिलौने की शक्ल पाने लगे हैं। ये लेख 10/12/09 के जनसत्ता में छपा है

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

मैं महंगाई हूं

इन दिनों मेरी चर्चा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। चारों ओर, खेत खलिहान से लेकर घरों के दलान तक। शहर की गलियों से लेकर खेल के मैदान तक। हर तरफ मैं ही मैं हूं, दूसरा कोई नहीं। जब मैं अपने शबाब पर आती हूं तो देश की ज्यादातर आबादी को नानी याद आ जाती है। वे हाय हाय करते दिखाई देते हैं। फर्क नहीं पड़ता तो सिर्फ उनको जिनके पास अकूत दौलत है या फिर उनको जो सरकारी खजाने से अपना परिवार चलाते हैं।

जी हां, आपने बिलकुल ठीक समझा। मैं महंगाई हूं। इन दिनों पूरे देश में मेरा ही जलवा है। हर ओर मेरी ही चर्चा है। मैं सर्वत्र व्याप्त हूं। मैं कहीं भी पहुंच सकती हूं। और किसी पर भी काबिज हो सकती हूं। पिछले दिनों सब्जी के राजा कहे जाने वाले आलू को गुमान हो गया था कि उससे सस्ती कोई सब्जी नहीं, तो बस मैं उस पर काबिज हो गई। अब हाल देख लो। .... ऐसी ही कुछ सनक सिरफिरी दाल पर भी सवार हो गई थी, जिसे देखो वही कहता था- बस, दाल रोटी चल रही है। मैं ऐसा कब तक देख सकती थी। अगर देखती रहती तो मेरा वजूद ही खत्म हो जाता, बस मैं दाल पर सवार हो गई, अब बताओ कौन कहता है-‘दाल रोटी चल रही है।’ मैंने बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके दूध पर भी अपनी गिद्ध नजरें गड़ा दीं। अब गरीब माएं बच्चों को पानी मिलाकर दूध पिलाती हैं। मेरी खुद की आंखों में पानी भर आया। मुझे द्रोणाचार्य याद आ गए। किस तरह उन्होंने अश्वत्थामा को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया था चीनी मिलाकर। लेकिन मैंने तो चीनी की मिठास में भी जहर घोल दिया है। आखिर, मुझे अपना वजूद बचाए रखना है। सरकारें तो अपना वजूद बचाने के लिए नरसंहार तक करवा देती हैं, न जाने कितनी मांओं की गोद सूनी करवा देती हैं। कितनी सुहागिनों को विधवा करवा देती हैं। इनके मुकाबले तो मैंने कुछ भी नहीं किया।

मैं कोने में गुमसुम पड़ी थी, चुपचाप। सब अपनी अपनी कर रहे थे। दिल्ली की सरकार आंखें मूंदे काॅमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में लगी थी, उसे भी मुझसे मतलब नहीं थी। सरकार में शामिल नेताओं, विपक्षी नेताओं को मेरे आने जाने से विशेष फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मुझे अपना वजूद बचाना था। इसलिए मैं हर दिन किसी न किसी जरूरी वस्तु पर सवार होती गई, यहां तक कि कम कमाने वाले लोगों के जीवन की गाड़ी करीब करीब पंचर हो गई, लेकिन ‘गरीबों की सरकार’ फिर भी नहीं चेती। बल्कि उसने और चीजों पर सवार करवा दिया। पहले बिजली के तारों पर सवारी करवाई, और बिजली के दाम बढ़ा दिए, फिर डीटीसी की नई नवेली बसों में सवारी करवा कर अपनी जेब गर्म की, और अब दिल्ली की पहचान बन चुकी मेट्रो में भी मुझे सवार कर दिया। लोग मेरी हाय-हाय कर रहे हैं। लेकिन कर कुछ भी नहीं रहे।

अकेले मैंने देश की सरकार गिरवा दी थी। वो भी सिर्फ प्याज पर सवार होकर। लेकिन पता नहीं, इस बार इन सरकारों को क्या हो गया है? सभी जानबूझ कर मुझे जरूरी चीजों पर सवार करा रहे हैं। विपक्षी नेता मेरे बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं, लेकिन उन्हें भी पता है, जब मेरे चढ़ते जाने के पीछे सरकार ही है तो कोई उसका और मेरा भी क्या बिगाड़ लेगा। अब किसी के पास रीढ़ नहीं बची है, सभी बिना रीढ़ वाले जीव की तरह रेंग रहे हैं। और जनता पिस रही है।

बुधवार, 11 नवंबर 2009

पैरोल पर रिहाई चाहिए

मुझे भी पैरोल पर रिहाई चाहिए। उसे भी पैरोल पर रिहाई चाहिए। उसकी बाजू वाले कारागार में जो कैदी बंद है उसे भी पैरोल पर रिहाई चाहिए। सिर्फ तिहाड़ जेल में बंद कैदियों को ही नहीं, देश भर की जेलों में बंद कैदियों में से ज्यादातर कैदियों के घर पर कोई ना कोई बीमार है। इसलिए इन सबको पैरोल पर रिहाई चाहिए। आखिर परिवार के बुजुर्गों की सेवा करना उनका कर्त्तव्य है और अब जेल में बंद होने के बाद हमें, उन्हें, सबको अपने कर्त्तव्य की याद आई है। इसलिए मुझे और उन सबको पैरोल पर रिहाई मिलनी चाहिए। जेल में रहने से मेरे और उनके और उनके भी पड़ोसियों के सामाजिक संबंध खत्म होते जा रहे हैं, सबको उन्हें बनाए रखना है। और जेल में रहकर ऐसा नहीं हो सकता इसलिए पैरोल पर बाहर आकर सभी अपने संबंधों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, ताकि भविष्य में इन संबंधों के सहारे ही कुछ ‘विशेष कार्य निष्पादित’ किया जा सके। मैंने, उसने और उसके भी पड़ोस वाले ने पैरोल पर रिहाई के लिए आवेदन किया हुआ है। लेकिन उस पर अब तक सुनवाई नहीं हुई है। सुना है मर्डर केस में आजीवन कैद काट रहे किसी ‘बड़े आदमी’ को पैरोल मिलने पर मीडिया का बाजार गर्म हुआ पड़ा है। मां की बीमारी की वजह से उसे पैरोल पर रिहा किया गया था। रिहाई के बाद वो दिल्ली के एक पब में मौज मस्ती करता हुआ पाया गया। वो ‘बड़ा आदमी’ था इसलिए मीडिया ने हाथोंहाथ लिया, सबने खूब चलाया। या कहें खूब बेचा। मामला संगीन है। इसलिए फिलहाल मेरे, उसके और उसके भी पड़ोस वाले कैदी की पैरोल पर रिहाई के आवेदन को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। भला हो दिल्ली हाईकोर्ट का जिसने गरीबों के पैरोल पर रिहाई के आवेदन पर जल्द सुनवाई नहीं करने के लिए दिल्ली सरकार के प्रति नाराजगी जताई है, जिससे उम्मीद बनी हुई है कि मुझे, उसे और उसके पड़ोस वाले को पैरोल पर रिहाई मिल जाएगी। और मैंने, उसने या उसके पड़ोस वाले ने तो मर्डर भी नहीं किया है, कहीं इसलिए तो पैरोल मिलने में देर नहीं हो रही। अगर ऐसी ही बात है तो हमें एक बार तो जरूर ही पैरोल मिलनी चाहिए, जिससे हम सभी बाहर जाकर किसी का खून करें और फिर आजीवन कारावास की सजा पाएं, और उसके बाद जब जेल आएं और पैरोल पर रिहाई के लिए आवेदन करें तो दिल्ली की मुख्यमंत्री हम सब पर भी मेहरबान हों, और उपराज्यपाल के पास हम सबकी रिहाई की संस्तुति भेजें, ताकि हमें भी एक महीने की न सही, पंद्रह दिन की ही रिहाई मिल सके, जिससे हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकें। सामाजिक संबंध बना सकें। और अगर थोड़ा समय बच जाए तो थोड़ी मौज मस्ती भी कर सकें। ये lekh २८/११/०९ के हिन्दुस्तान में छपा है।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

नक्सली, नक्सली और नक्सली

देश भर में नक्सलियों की चर्चा गर्म है
हर तरफ एक ही शोर है
नक्सली, नक्सली और नक्सली।
कभी,
पुलिस वाले को किडनेप कर लिया
तो
कभी
राजधानी जाने वाली एक्सप्रेस के जरिए रखी अपनी बात
लेकिन नहीं पूरी हुई मुराद,
वे अब भी नक्सली ही हैं।
झारखंड के एक नक्सली से पूछा गया-
क्यों कर रहे हो ये सब,
क्यों अड़ा रहे हो विकास की राह में रोड़ा
उसने मायूसी से छोटा सा जवाब दिया-
मधु कोड़ा।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

फिट रहने का मामला है

आज हमारे समाज का हर युवा अपनी फिटनेस को लेकर पागल है। हर कोई स्लिम ट्रीम दिखना चाहता/चाहती है। सबका बस एक ही ख्वाब है कि खूबसूरत दिखने की होड़ में वो दूसरे से पीछे ना छूट जाए। फिटनेस की फिक्र करने वाला कोई भी टीनेजर ऐसा कुछ नहीं खाना चाहता जिससे उसकी चर्बी बढ़ जाए और वो अपने साथियों के बीच सबसे मोटा और भौंडा दिखाई दे। हालांकि इसके बावजूद फास्ट फूड खाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। मेरी एक सहकर्मी ने भी पिछले कुछ दिनों से खाना पीना लगभग छोड़ रखा है, दरअसल उसे दुबला होना है। फरवरी में उसकी शादी है और उसके होने वाले पति ने उससे शादी से पहले स्लीम होने को कहा है। हालांकि उन्होंने शर्त नहीं रखी है और ये राहत की बात है। आप किसी भी शादी या समारोह में चले जाइए, लोग खाने का सिर्फ स्वाद चखते ही दिखाई देंगे। पूछने पर जवाब मिलेगा। डाइटिंग पर हूं। हर दूसरा बंदा आपसे यही कहेगा। ऐसे में मेजबान की मुसीबत बढ़ जाती है। वो खुद से ही पूछता है - क्या खाना अच्छा नहीं बना? या लोग नाराज हैं? लेकिन ऐसा होता नहीं है। दरअसल सलमान की तंदुरूस्त बॉडी के बाद शाहरूख के सिक्स पैक ऐब्स और उसके बाद आमिर के ऐट पैक ऐब्स ने तो जैसे लोगों को पागल ही कर दिया है। करीना के जीरो फीगर ने भी लड़कियों को खूब आकर्षित किया। लड़के ‘खान्स’ जैसे बनना चाहते हैं, तो लड़कियां करीना जैसी काया पाने के फेर में लगी हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में शादियों में मेहमानों की खातिरदारी करने के लिए मेजबान अगर छोटे मोटे जिम की व्यवस्था भी करें तो चैंकिएगा मत। कैलोरी कंशस मेहमानों के लिए खाने की टेबल के पास कुछेक ‘ट्रेड मिल’, ‘क्राॅस ट्रेनर’ या ‘ट्विस्टर’ देखने को मिल सकते है। ताकि वो जितनी कैलोरी खाएं इन मशीनों के जरिए उतना ही बर्न भी कर सकें। और अपनी स्लिमनेस बनाए रख सकें। युवाओं के लिए ‘डंबल’ और ‘पुल अप’ की व्यवस्था भी की जा सकती है, ताकि वो अपनी बाईसेप्श बना सकें। और शादी में बेकार होने वाले समय का सदुपयोग कर सकें।

सोमवार, 28 सितंबर 2009

चार पन्नों का प्रमाणपत्र

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर और प्रमाण पत्र के प्रारूप में बदलाव करके चाहे कुछ किया हो या न किया हो, स्कूल में आंतरिक ग्रेड देने वाले शिक्षकों को शोषण का अधिकार जरूर दे दिया है। दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में ग्रेडिंग सिस्टम लागू होने के बाद अब दसवीं का जो प्रमाण पत्र बनेगा, उसमें नौंवी कक्षा का भी रिजल्ट शामिल होगा। पहले आपके हाथ में सिर्फ एक पन्ने का सर्टिफिकेट होता था, लेकिन अब वो चार पन्नों का होगा। पहले पेज पर छात्रों के माता पिता का नाम होगा, फोटो और स्कूल की दूसरी जानकारियां होंगी, और यह भी छपा होगा कि छात्र का लक्ष्य क्या है, उसकी रूचि किन क्षेत्रों में है और उसके पसंदीदा खेल कौन से हैं। दूसरे पन्ने पर नौंवी और दसवीं के छात्रों का शैक्षणिक रिकॉर्ड होगा। और पढ़ाई के साथ साथ, कला और शारीरिक शिक्षा के ग्रेड होंगे। तीसरे पन्ने पर बच्चे का जीवन कौशल, मास्टर और साथ में पढ़ने वाले बच्चों से उसका व्यवहार कैसा है, स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों और नैतिक मूल्य कैसे हैं, इसकी जानकारी होगी जो पूरी तरह से स्कूल के मास्टर ही तय करेंगे। और चौथे पन्ने पर स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा में बच्चे के प्रदर्शन के साथ साथ उसकी सेहत की जानकारी होगी। स्कूल में होने वाले स्पोट्र्स कंपीटिशन, एनसीसी और एनएसएस, गाइडिंग, स्विमिंग, जिमनास्टिक, योग और गार्डनिंग में से किन्हीं दो में बच्चे का प्रदर्शन कैसा है, इसकी आंकड़ा स्कूल को देना होगा। बस यही पेंच है इस ग्रेडिंग सिस्टम का। हालांकि इन क्षेत्रों में ये ग्रेड पहले भी चापलूसी और चमचागिरी के आधार पर ही मिलते रहे हैं, लेकिन अब छात्रों की समस्या कम नहीं होगी, बल्कि बढ़ जाएगी। खेल के नंबर देने वाले पीटी सर (पीईटी) बच्चों से अपने घर का काम और जोर शोर से करवाएंगे। शहरों का तो मालूम नहीं, लेकिन गांव और कस्बों में ऐसा ही होता है। चौथे पन्ने पर जिन क्षेत्रों की ग्रेडिंग होनी है, उसका आकलन स्कूल के मास्टर ही करते हैं, और अब वे ज्यादा खुलकर कर पाएंगे। क्योंकि अब उनका दायरा बढ़ गया है। जो चीजें पहले खेल के मैदान में होतीं थीं, अब वे कई जगहों पर दिखाई देंगी। बच्चों को कई परीक्षाएं देनी होंगी। सिर्फ पढ़ाई से काम नहीं चलने वाला, मास्टरों के घर का काम भी करना होगा, जिससे वे खुश रहें और दसवीं की चार पन्नों के प्रमाण पत्र में ज्यादा से ज्यादा और अच्छे से अच्छे ग्रेड शामिल करवा सकें।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

एक था समाजवादी!

मित्रों, जानकर दुख होगा कि मेरे एक साथी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। वो करीब पैंतीस वर्ष का है, और उड़ीसा के बरगढ़ जिले का निवासी है। आप सोचेंगे कि सिर्फ पैंतीस साल की उम्र में ऐसा कैसे हो गया? दरअसल उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने के पीछे बात उम्र की नहीं बात सोच की है। वो एक समाजवादी है, कट्टर समाजवादी। दुनिया को उसने अपनी आंखों से नहीं, समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की आंखों से देखाा था। 1994 में बनाई उनकी पार्टी समाजवादी जनपरिषद से उसका जैसे सांसों का रिश्ता था। मुझे याद है समाजवादी जनपरिषद की जितनी भी गोष्ठियों में उसे देखा था, बिल्कुल साधारण वेषभूषा। एक निपट देहाती जैसी ही। और उस पर भी वो उड़ीसा का है, जहां गरीबी हर दूसरे कदम पर कदम मिलाती हुई दिखाई देती है। अभी कुछ देर पहले ही बरगढ़ से साथी ‘हर’ का फोन आया था, उसने ये दुखदायी सूचना दी। कलेजा मुंह को आ गया। मनोरंजन से पिछली मु लाकात दिल्ली में ही विद्यार्थी युवजन सभा के एक सम्मेलन के दौरान हुई थी। संगठन को आगे ले जाने के उसके विचार, उसकी नेतृत्व क्षमता, उसके ओजपूर्ण भाषण, उसके नाटक, उसका अभिनय और अभिव्यक्ति, हर बात ऐसे सामने आ गई, जैसे कल की बात हो। इसी महीने के आखिरी में धनबाद में विद्यार्थी युवजन सभा का राष्ट्रीय सम्मेलन होना है, लेकिन अब संगठन के अध्यक्ष की मानसिक हालत ठीक नहीं है, ऐसे में संगठन के सामने दुविधा की स्थिति है। लेकिन सवाल ये उठता है कि उड़ीसा जैसे राज्य में, जहां की आबादी में गरीब 70 फीसद से भी ज्यादा हैं, वहां समाजवादी सोच रखने वाला एक नौजवान आखिर क्यों मानसिक रूप से संतुलन गवां बैठता है? क्या कोई रास्ता नहीं बचा है? क्या उस जैसे सोचने वाले हर नौजवान की यही परिणति होनी है? साथी हर से ये खबर मिलने के बाद मुझे साथी मनोरंजन का पहनावा याद आ गया। घुटने से जरा सा नीचे का एक पैजामा, एक खादी का कुर्ता और एक गमछा। बस यही उसकी पूरी पोशाक थी। और ऐसा भी नहीं था कि उसके पास कई जोड़े कुर्ते पैजामे थे। एक जोड़ा जो वो पहनता था, उसके अलावा सिर्फ एक जोड़ा और होता, जो उसके कपड़े के ही झोले की शोभा बढ़ा रहा होता। और जब पहने हुए कपड़े धोए जाते तो वे जोड़े झोले से बाहर आते। बिलकुल समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। शोक मनाउं या फिर दिल को दिलासा दूं कि आज के समाजवादियों का चोला बदल गया है। लोहिया और जयप्रकाश के समय का समाजवाद अब नहीं रहा। अब मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह का समाजवाद बचा है जो लंबी लंबी कारों में चलता है। और उनके अलावा जो तथाकथित समाजवादी शिक्षक हैं भी उनके पास एक से ज्यादा कारें हैं, दिल्ली में ही एकाधिक मकान हैं, विदेशों में पढ़ा रहे हैं। मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि लोहिया और जयप्रकाश के समाजवाद का एक सिपाही धाराशाही हो गया है। पूंजीवादी ताकतों के सामने उसका प्रतिरोध इतने भर ही था, अब शायद उसकी आवाज कभी सुनने को ना मिले। ना तो मंच से और ना ही रंगमंच से। मैं भी डर गया हूं। और उड़ीसा में अपने दूसरे साथियों को ये सलाह दे रहा हूं कि अब ना उठाओ समाजवाद का डंडा। बस घर चलाओ, और जीवन यापन करो। देश ऐसे ही चलता रहेगा। किसी को कोई शिकायत न होगी, दुनिया भी अपनी तरह चलती रहेगी, किसी को कोई शिकायत न होगी।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

कम करो खर्चे!

इन दिनों केंद्र सरकार का परिवार गरीबी से जूझ रहा है। देश में गरीबी छा रही है। कहिए, कि गरीबी आ रही है। तभी तो परिवार के वरिष्ठ सदस्य और उनसे जरा से कनिष्ठ सदस्यों ने फाइव स्टार होटल छोड़कर राज्य के भवन में निवास बनाने की पहल की, या अपने दूसरे स्तर से खर्च कम करने का प्रयास किया। दरअसल पूरे कुनबे का खर्चा झेल रहे प्रणब मुखर्जी को लगने लगा था कि परिवार का खर्चा अनावश्यक रूप से बढ़ गया है। जिससे परिवार को बुरा दिन देखने को मिल सकता है, ऐसे में उन्होंने वरिष्ठ सदस्य को सीधे तो कुछ नहीं कहा, मीडिया में सीधे ही कह दिया कि परिवार के खर्चे कम करने के लिए बुजुर्ग और जिम्मेदार सदस्यों को अपने "शाह'खर्ची कम करनी चाहिए। साथ ही जो परिवार के जो युवा भी फिजुलखर्ची कर रहे हैं, उन्हें भी अपने खर्च कम करने चाहिए। आखिर परिवार का खर्च चलाना कोई आसान काम तो है नहीं, उस हिसाब से कमाई हो नहीं रही थी, हालांकि परिवार में फांके की नौबत नहीं आई है, लेकिन आमद और खर्च का हिसाब देखने वाले को तो भविष्य के बारे में सोचकर ही जेब ढीली करनी होती है। तो क्या बुरा है यदि परिवार का वित्तीय हिसाब रख रहे प्रणब मुखर्जी ने ये सलाह दे दी। अब जब खर्च कम करने की बात थी तो "किचन संभाल रही' परिवार की मुखिया भी कैसे पीछे रहती? उन्होंने भी अपने खर्च में कटौती का ऐलान कर दिया। और हवाई जहाज में गरीबों की तरह इकोनोमी क्लास में सफर किया। अपने सुरक्षाकर्मियों की संख्या में भी कटौती कर दी। और जब परिवार की मुखिया ने ये कदम उठाया तो उनके बेटे भी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी हवाई जहाज छोड़ कर रेलगाड़ी पकड़ी और छुक-छुक करते हुए लुधियाना पहुंच गए। आखिर परिवार का खर्चा संभालने वाले प्रणब दा ने कहा था सो बात सबको माननी ही थी।

चलते चलते

विपक्षी आरोप लगाते हैं कि देश सूखे, गरीबी और महंगाई से जूझ रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लेकिन कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। चहुंओर शांति ही शांति है। बस चीनी पैंतीस रूपए किलो हो गई है। सबसे सस्ता चावल भी बीस रूपए के पार है। खुला आटा पंद्रह रुपए किलो है। अगर नमक बढ़िया चाहिए तो एक किलो के लिए सत्रह रुपए का भुगतान करना होगा। तो जहां लोग हजारों रुपए महीना कमा रहे हों, वहां कहां है महंगाई। लेकिन हर आदमी हजारों रूपए महीना नहीं कमा रहा, आम आदमी दाने दाने को मोहताज है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी मंदी के संकट से जूझ रहा है। ऐसे में केंद्र 'सरकार' परिवार को इसका सामना करना पड़ रहा है तो अजूबा क्या है?

रविवार, 30 अगस्त 2009

कहाँ है महंगाई

लोग कहते हैं महंगाई बढ़ रही है। खाने से लेकर नहाने तक के सामान महंगे हो गये हैं। कम कमाने वालों को आटे दाल की कीमत चुकाने में पसीना आ रहा है। सब्जी और फलों की कीमतें एक समान हो गयी हैं। फूल गोभी और मटर तो सेब और अनार की कीमतों को टक्कर दे रहे हैं। महंगाई से लोगों की जेब ढीली हो रही है। आम आदमी महंगाई का रोना रो रहा है। सरकारें महंगाई काबू करने के उपाय करने के आ·ाासन दे रहीं हैं। लेकिन ये सिर्फ कोरे आ·ाासन ही साबित हो रहे हैं। महंगाई काबू नहीं हो रही है। बल्कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है। महंगाई बढ़ रही है, लोग रूपयों के आंसू रो रहे हैं, कुछ ने तो अपने शौक की तिलांजलि भी दे दी है। महंगे होटलों में खाना बंद कर दिया है। रेस्टोरेंट जाना भी बंद कर दिया है। सिनेमा देखना बंद कर दिया। ताकि कुछ पैसे बचाकर स्थिति को मैनेज किया जा सके। लेकिन कुछ लोगों पर इस महंगाई का असर नहीं पड़ा है। आप कह सकते हैं कि पैसे वालों पर महंगाई का असर नहीं पड़ा है। नेताओं पर महंगाई का असर नहीं पड़ा है। इसके अलावा और भी कई ऐसे नाम भी हो सकते हैं जिन पर महंगाई का असर नहीं पड़ा है। लेकिन ऐसे "आम और गरीब' लोगों की भी संख्या कम नहीं है जिनपर महंगाई का असर नहीं पड़ा है, बल्कि उन्होंने महंगाई और मंदी के इस दौर को इंज्वाय किया है। वो भी जमकर। जी हां, आप कहेंगे कि आपसे झूठ कहा जा रहा है, लेकिन ये रत्ती भर भी झूठ नहीं है। सच है, कोरा सच। ये सच उतना ही बड़ा सच है जितना बड़ा सच महंगाई का बढ़ना है, जितना बड़ा सच खाने पीने के सामान में बढ़ोतरी का है। जी हां, दिल्ली सरकार के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि लोगों ने महंगाई को इंज्वाय किया है। आबकारी विभाग ने 5.02ऽ ज्यादा कर वसूला है। यानी शराब के शौकीनों ने बिना महंगाई से डरे अपनी हर शाम को पूरा इंज्वाय किया। हालांकि होटलों में जाने से बचने वालों, सिनेमा जाने से बचने वालों की वजह से मनोरंजन और विलासिता कर में मामूली गिरावट आई है, लेकिन मदिरा के शौकीनों या कहें मदिरा के आदी लोगों ने मंदी और महंगाई के इस दौर में भी जमकर बोतलें खोली, और सिर्फ खोली ही नहीं, बल्कि जमकर डूबकी भी लगाई है। तो कोई बताए जरा, कहां है मंदी, और कहां है महंगाई?

सोमवार, 17 अगस्त 2009

नदियों की गलती क्या है?

नदियों को हमारे देश में मां का दर्जा दिया जाता है। गंगा, यमुना और भी कितनी ही जीवनदायिनी नदियां हैं जो जहां से भी गुजरती हैं सम्मान से पूजी जाती हैं। उन्हें मां स्वरूपा मानते हुए लोग उनकी आरती करते हैं और हो भी क्यों न? वे जहां से भी गुजरती हैं, लोगों का आसरा बनती हैं। तट पर रहने वाले लोग इन जीवनदायिनी नदियों के सहारे अपनी जीविका पाते हैं। मल्लाह इन नदियों में अपनी नाव चलाकर जीवन की नैया खेते हैं तो मछुआरे इनमें पलने वाली मछलियों को अपने जीवन का पालनहार बनाते हैं। इन्हीं नदियों से निकली नहरों के सहारे किसान अपने खेतों की सिंचाई करता है। और अपनी श्रमसीकरों की बूंद बहाकर खेतों से सोना उपजाता है जिससे उसका पेट पलता है, उसके परिवार का पेट पलता है, और अंततः पूरे देश का पेट पलता है। लेकिन इन दिनों देश की महानतम नदियों (धार्मिक रूप से भी और सांस्कृतिक रूप से) का अस्तित्व ही खतरे में हैं। उत्तराखंड से निकली यमुना करीब पांच सौ किलोमीटर बाद देश की राजधानी दिल्ली में इतनी प्रदूषित हो जाती है कि उसकी ओर आंख उठाकर देखना भी मुश्किल हो जाता है, उसमें स्नान करके पाप धोने की बात तो दूर की बात है। महज पांच सौ किलोमीटर की दूरी तय करने के दौरान यमुना को भारी यातना से गुजरना पड़ता है, काफी तकलीफ सहनी पड़ती है। इस स्वच्छंद बहती नदी के निर्मल शरीर पर इतने जख्म लगते हैं कि मलहम लगाने वाले भी मलहम लगाने की जगह तलाशते दिखायी पड़ते हैं। इस छोटी से दूरी में इस सरस सलीला नदी में इतने उद्योगों, कल-कारखानों का गंदा रसायनिक अपशिष्ट पदार्थ गिरता है, जिसे ये झेल नहीं पाती, और धीरे-धीरे गंदली होती हुई खुद ही स्याह काली हो जाती है। कुछ ऐसा ही हाल पतित पावनी गंगा का भी है। वाराणसी या पटना में नहीं, बल्कि अपने ही उद्गम स्थल पर। गंगोत्री पर। यहां भी गंगा की पवित्रता, उसकी स्वच्छता अब अक्षुण्ण नहीं रह गयी है। उसका निर्मल ठंडा जल बहता तो अब भी उसी रफ्तार से है, लेकिन अब गंगोत्री पर भी गंगा उतनी पवित्र नहीं रह गयी है, जितना उसे माना जाता है। अब वहां भी चारों ओर कूड़ा और गंदगी का अंबार दिखायी देता है। मन्दाकनी और अलकनन्दा की हालत भी इन नदियों से ज्यादा अच्छी नहीं है। क्रमशः केदारनाथ धाम और बद्रीनाथ धाम से निकलने वाली इन नदियों की हालत भी अपने मुहाने पर ही खराब हो जाती है, जो नीचे तक आते आते ऐसी हो जाती है कि इन नदियों के शीतल जल की जगह हमारा ध्यान इनके गंदेपन की ओर ही जाता है। आखिर नदियों के मुहाने पर ही इतनी गन्दगी की वजह क्या है? आखिर किसने किया इन्हें गन्दा? किसने लगाया इनके दामन पर बदनुमा दाग? इस गन्दगी के पीछे कसूर किसका है? इन नदियों की इस हालत के लिए क्या सिपर्फ कल-कारखाने जिम्मेदार हैं? क्या सिर्फ सरकारें जिम्मेदार हैं? नहीं। इन सवालों के जवाब आपको स्वतः मिल जाएंगे। ज्यादा सोचने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। अगर आप नहीं सोच पाए हों तो एक ब्रह्म सत्य जान लीजिए, वो इंसान ही है, जिसने कल-कल बहती इन नदियों की सुंदरता, उनकी निर्झरता और उनकी पवित्रता को नुकसान पहुंचाया है। कहते हैं इंसान जहां पहुंच जाता है, कुछ करे या न करे, गंदगी जरूर फैलाता है। कुछ ऐसा ही इन नदियों के साथ भी हो रहा है। कुछ लोग पर्यटन के बहाने इन पवित्र नदियों के मुहानों पर पहुंच रहे हैं तो कुछ भक्ति के सागर में गोता लगाने के लिए। लोग इन जगहों पर दो-तीन दिन ठहर कर यहां की प्राकृतिक सुंदरता को निहार कर अपना दिल खुश करते हैं, यहां की तारीफ करते हैं, तो कुछ लोग गंगोत्री और यमुनोत्री में स्नान कर अपना और अपने पूर्वजों का भूत और भविष्य सुधारने की आशा करते हैं। चाहते हैं कि उनके पूर्वजों को मोक्ष मिल जाए। कामना मोक्ष पाने की है, लेकिन किन शर्तों पर? गंगोत्री और यमुनोत्री में स्नान करने के बाद लोग क्या करते हैं? ये बताने के लिए सिर्फ ये तस्वीरें ही काफी हैं।
गंगोत्री में स्नान के बाद श्रद्धालु महिलाएं अपने वस्त्र धो रही हैं। यमुना के उद्गम पर ही लोगों ने अपने पुराने चिथड़े फेंक रखे हैं। कहीं पानी में प्लास्टिक अटकी पड़ी है। लेकिन इनकी सुध लेने वाला कौन है। केदारनाथ धाम से निकलने वाली मंदाकिनी की अगर बात करें तो यहां जो लोग बारिश से बचने के लिए बीस-बीस रूपए खर्च करके प्लास्टिक की रेनकोट खरीदते हैं, लेकिन भगवान के दर्शनों के उपरांत वहां से जाते समय उसे अपने साथ नहीं ले जाते, बल्कि गौरीकुंड तक ले जाना भी उन्हें भारी लगने लगता है, वे उस प्लास्टिक को केदारनाथ से गौरीकुंड के बीच ही कहीं छोड़ देते हैं। ये पूरी तरह से मौसम और उन श्रद्धालुओं की इच्छा पर निर्भर करता है। हालांकि राज्य सरकार ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया हुआ है, लेकिन उस चेतावनी के बोर्ड को देखता कौन है, और अगर कोई देख भी ले तो पढ़कर उस पर अमल कौन करता है?

सबने अपनी भक्ति से अपने आराध्य को प्रसन्न कर लिया है, अब उन्हें किसी का भय नहीं है और ना ही किसी अन्य चीज से सरोकार ही है। होती हो गंगा गंदी तो उनकी बला से। यमुनोत्री से उनका क्या वास्ता। मंदाकिनी तो अब आना ही नहीं है जब ये तीनों ही नहीं तो अलकनंदा का क्या कहना? इन तीर्थों पर आने वाले सभी भक्त अपनी ईश भक्ति में मग्न हैं। उनकी सोच उनके आराध्य तक ही है, वे इससे आगे कुछ सोच ही नहीं पाते। उन्हें ना तो प्रकृति की चिंता है, और ना ही उन निर्झरणियों की जो आज भी समतल भूभाग में हजारों लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी हैं। उनके लिए मां समान हैं। उनका पालन-पोषण करती हैं।

इन पवित्र नदियों की मर्यादा, इनकी शीतलता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए चार धाम की यात्रा करने वाले भक्तों, श्रद्धालुओं और पर्यटकों से बस ये लेखक इतनी से गुजारिश करता है कि आप चाहे जितना भी प्लास्टिक का इस्तेमाल करें, उसे वहां फेंकें नहीं। इन नदियों के उद्गम पर चाहे जितना स्नान करें, बस गुजारिश इतनी ही है कि वहीं खड़े होकर अपने कपड़े न धोएं। दूसरों की भावनाएं भी हैं, कम से कम इतना तो जरूर सोचें कि आपके बाद आपके बच्चे भी इन्हीं तीर्थस्थलों पर आएंगे। तो उनके लिए ही सही, इन पवित्र धामों को इतना तो पवित्र रहने ही दें कि जब वो आएं तो वे भी आपकी ही तरह इन धामों से जुड़ाव महसूस कर सकें।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

देश का भविष्य

ये हमारे देश के भविष्य हैं। लेकिन इन्हें अपनी ही चिंता नही है। शाम ५ बजे स्कूल में छुट्टी के बाद या घर जा रहे हैं। घर पर इनके माता पिता इनका इन्तजार कर रहे होंगे। लेकिन इन्हें इससे क्या फर्क पड़ता है? इस तरह सफर करने से पहले हमारे देश का भविष्य ये भी नही सोचता कि अगर कहीं बस ने एक जोरदार झटका खाया या किसी गड्डे में इसका एक भी टायर चला गया तो देश का क्या होगा? भविष्य में कौन सम्हालेगा इस देश को?

आखिर हमारे देश का भविष्य इस तरह सफर क्यों कर रहा है? क्या उसके पास और कोई साधन नही है? क्या इस डीटीसी बस के बाद दूसरी बस नही आएगी? अगर आएगी तो फिर इतनी जल्दी क्या है? तनिक ठहर जाओ ए देश के भविष्य। कोई तुम्हारा इन्तजार कर रहा है। इतनी जल्दी किस बात की है? अभी तो देश बहुत ही इमानदार और मजबूत हाथों में है। हालांकि इन मजबूत हाथों की उम्र ज्यादा हो चुकी है। वे अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, उनके जाने के बाद तुम्हें ही तो देश का दायित्व संभालना है। तुम तो देश के भविष्य हो, आगे चल कर देश का भार तुम्हारे ही हाथों में आना है, तो इतनी जल्दी में क्यों हो? तनिक ठहर जाओ, दूसरी बस का इन्तजार कर लो। और फिर तुमने तो अभी दुनिया भी नहीं देखी है, देख लो, समझ लो। फिर आगे बढ़ जाना, लेकिन इतनी जल्दी तो न करो ऐ मेरे देश के भविष्य। आप भी इन्हें कुछ कहिए ना!

सोमवार, 20 जुलाई 2009

स्टेशन तो वर्ल्ड क्लास है, लेकिन...

रेल मंत्रालय नई दिल्ली रेलवे स्टेशन को वर्ल्ड क्लास बनाने में जुटा है। स्टेशन की इमारत का कायाकल्प हो चुका है। और बहुत ही तेजी से बाकी बचा काम पूरा किया जा रहा है। पुरानी इमारत के खंडहर ही बचे हैं, जहां काम पूरी तरह से बंद हैं। कुछ दिन में वे खंडहर भी गायब हो जाएंगे। और आप जब अगली बार दिल्ली आएंगे तो नई दिल्ली स्टेशन आपको नया-नया अनजाना सा दिखेगा। निर्माणाधीन होने के बावजूद काफी खूबसूरत लग रही है इमारत। कॉमनवेल्थ गेम्स और पश्चिमी दुनिया की बराबरी करने की होड़ के मद्देनजर स्टेशन तो वर्ल्ड क्लास बन रहा है लेकिन व्यवस्था वही पुरानी है आदम बाबा के जमाने की। अजमेरी गेट की तरफ नई टिकट खिड़कियां बन गई हैं। वहां काम भी चालू हो गया है। इनमें महिलाओं और बुजुर्गों के लिए अलग खिड़की की व्यवस्था है, लेकिन वर्ल्ड क्लास व्यवस्था के तहत वो दोनों ही खिड़कियां बंद हैं।
आज सुबह अपनी पत्नी को ट्रेन में चढ़ाने स्टेशन गया था। आधी से ज्यादा टिकट खिड़की बंद थी। तो स्वाभाविक था कि बाकियों पर लंबी लंबी लाइनें ही मिलतीं। मैंने उसे महिला वाली खिड़की पर जाने को कहा। वो बंद थी, सबकी एक ही लाइन थी। महिलाएं, पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाए खड़ी थीं, बुजुर्ग भी जवानों को टक्कर देते उसी लाइन में अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। तो आखिर क्या मतलब इन खिड़कियों का। खिड़की बनाई तो कर्मचारी भी रखो ना। प्लेटफार्म पर जाने के लिए मुझे प्लेटफार्म टिकट भी चाहिए था। टिकट खिड़की के उपर एक बड़े से बोर्ड पर लिखा था, कि हर खिड़की पर प्लेटफार्म टिकट मिलते हैं, लेकिन कमोबेश हर खिड़की पर एक पर्चा चिपका था कि प्लेटफार्म टिकट खिड़की नंबर 13 पर मिलते हैं। तो उस बड़े से बोर्ड की जरूरत क्या है। ऊपर, तस्वीर में गौर से देखिए, दोनों लाइनों के बीच में आपको एक कागज नजर आएगा। वो इसी सूचना को प्रेषित करने के लिए लगाया गया है। ये 31 और 32 नंबर खिड़की के बीच में चिपका है। हालांकि ये पढ़ने लायक नहीं है।
ट्रेन में देरी होने पर यात्रियों को इंतजार करने के लिए बनने वाला प्रतीक्षालय खुद प्रतीक्षारत है। ऐसे में नई वर्ल्ड क्लास इमारत में चारों ओर फर्श पर लेटे-सोये यात्री दिखाई पड़ते हैं। और सफाईकर्मी भी अपना काम मुस्तैदी से अंजाम देते हैं। एक कर्मचारी सोये हुए लोगों पर पानी के छींटे मारता है। पीछे से दूसरा पानी की बाल्टी उड़ेलता जाता है। तीसरा झाडू लेकर आता है और चौथा वाइपर से पानी हटाता हुआ, फर्श साफ करता हुआ चला जाता है। फर्श साफ होने के बाद नींद से अनमनाया यात्री फिर से वहीं सो जाता है, जहां से उसे उठाया गया था।
इसमें नया कुछ भी नहीं है, ये सब आप भी जानते और समझते हैं। रोज इन चीजों का सामना करते हैं। जो बात मैं कहना चाह रहा हूं वो ये है कि रेल मंत्रालय देश की राजधानी के नई दिल्ली स्टेशन की इमारत को वर्ल्ड क्लास भले ही बना ले, लेकिन सरकारी नौकरी को आरामदायक मानने वाले कर्मचारियों और सरकारी संपत्ति को अपनी संपत्ति समझने वाले यात्रियों की सोच में बदलाव कैसे कर पाएगा? ये यक्ष प्रश्न है।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

बिकाऊ है, बोलो खरीदोगे?

टीवी की दुनिया में एक बात अक्सर कही जाती है। "जो बिकता है, वो दिखता है'। कई बार लगता है कि सच भी है। अब अपनी राखी सावंत को ही ले लीजिए। किसी भी रूप में, अंदाज में, पोशाक में, खूब बिकती हैं। जमकर बिकती हैं। और मीडिया वाले भी उसे किसी न किसी खूब भूनाते हैं। एनडीटीवी इमेजिन पर शुरू हुआ "राखी का स्वयंवर' खूब लोकप्रिय हो रहा है। खूब देखा जा रहा है। आज के युवा इस सीरीयल को जमकर देख रहे हैं, आहें भर रहे हैं- "हम वहां क्यों नहीं हैं? कोई शोक जता रहा है, दुख मना रहा है। क्या राखी सावंत वाकई किसी के गले में वरमाला डाल देगी? हर दूसरा युवक ये सवाल पूछता मिल जाता है। राखी का भाई भी है जो उसे समय समय पर सलाह देता दिखाई दे जाता है। इस स्वयंवर के कई प्रतियोगी उम्मीदवार एक एक कर बाहर हो चुके हैं। अपनी राखी ने बड़ी ही खूबसूरती से उन उम्मीदवारों से किनारा कर लिया। बड़े ही नाटकीय अंदाज में उसने अपने पांच संभावित पतियों के लिए करवा चौथ का व्रत भी रखा। उनकी मांओं ने उसका इंटरव्यू भी लिया या कहिए कि होने वाली बहु (अपनी कभी न होने वाली बहु) को इंटरव्यू दिया। एनडीटीवी पर तो ये सीरीयल धमाल मचा ही रहा है, लेकिन जो लोग इमेजिन नहीं देख पाते, उनके लिए न्यूज चैनल्स ये सुविधा मुहैया करा देते हैं। सबको मालूम है कि राखी का मामला है तो जो दिखाओ बिकेगा। असलियत यही है कि किसी चैनल को समाजिक सरोकारों से मतलब नहीं है, सभी टीआरपी की दौड़ में शामिल हैं। चीजें एक ही परोस रहे हैं, बस अंदाज अलग अलग हैं। कोई उसे पांचाली बता रहा है, तो कोई द्रोपदी लिख रहा है। मकसद एक है। सभी राखी को बेचना चाह रहे हैं। राखी बिक भी रही है। कोई, किसी भी भ्रम में ना रहें। ये वास्तविक स्वयंवर नहीं है, जहां अपना वर खुद चुना जाता है। ये सिर्फ एक प्रोग्राम हो सकता है, और यकीन मानिए, राखी सबको अंगूठा दिखाकर निकल जाएगी। इस बॉलीवुड बाला का स्वयंवर तब तक ही चलेगा, जब तक एनडीटीवी इमेजिन का कांट्रेक्ट है, उसके बाद सभी कलाकार अपने अपने घर लौट जाएंगे, कुछ लौट चुके हैं। कांट्रेक्ट खत्म होने के बाद इमेजिन पर तो राखी का स्वयंवर खत्म हो जाएगा लेकिन न्यूज चैनल्स उसके स्वयंवर की फुटेज संभाल कर रखेंगे, और जिस दिन राखी की शादी होगी, उस दिन उसके इस पहनावे को, उसकी अदाओं को जमकर बेचेंगे, और जान लीजिए, राखी का ये असफल साबित हुआ स्वयंवर सही मायनों में तभी बिकेगा। खूब बिकेगा।

रविवार, 28 जून 2009

जब कभी बेचैन होता हूं,

अकेले में गमगीन होता हूँ,

तब मुझे याद आती हो

तुम।

दिन तो फ़िर भी कट जाता है,

रात नही कटने पाती है,

फ़िर तो मेरे सिरहाने में

आ जाती हो

तुम।

यूँ ही तारे गिनते गिनते,

खुली आँख ही सपने बुनते,

सपनो में मुस्काती हो,

मुझे सारी रात जगाती हो,

तुम।

देखता हूँ तुमको हरदम,

हरवक्त मेरे पास हो तुम,

सपना हो या,

सच हो मगर,

एक सुखद एहसास हो

तुम।

गुरुवार, 25 जून 2009

कौन मानता है?

मेरे मित्र हैं, असम यूनिवर्सिटी में पढाते हैं, उनसे puch कर उनकी एक कविता डालरहा हूँ, पढिये और सोचिये, क्या हम भी ऐसे ही नहीं हो गए हैं?

आने पर दादी ने कहा

मेरी पोथी तो देना

मैंने कहा-

अभी जा रहा हूँ सुनने

परिवार की अवधारणा पर

एक व्याख्यान,

आने पर दूंगा।

उनका ब्लॉग है...

http://www.bavraaheri.blogspot.com/

गुरुवार, 18 जून 2009

ये विज्ञापन का नया अंदाज है...

ये विज्ञापन का जमाना है। जिसके बिना आज माल बेचना मुमकिन ही नहीं लगता। हर उपभोक्ता वस्तु का जोर शोर से विज्ञापन किया जाता है। कुछ भी इससे अछूता नहीं है। खाने की चीजें हो, नहाने की हो, पहनने की हो, खेलने की हो, सवारी की हो, माल ढोने वाली गाड़ी की हो या फिर घर बनाने के सामान की हो। हर चीज बेचने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है। ये गलत भी नहीं है। खासतौर से तब जब समाज उत्तर आधुनिक हो चुका है, जब लोगबाग टीवी, रेडियो, अखबारों या मीडिया के दूसरे माध्यमों से विज्ञापन देखकर ही अपनी जरूरतें तय करते हैं। या फिर उन पर मिलने वाली छूट देखकर ही सामान की जरूरत बढ़ाते और कम करते हैं। ऐसे में विज्ञापन जरूरी हैं। लेकिन विज्ञापन का मकसद क्या सिर्फ उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद की ओर आकर्षित करना भर है? माल बेचना भर है? क्या कंपनियों का इससे कोई वास्ता नहीं कि उनके विज्ञापनों से समाज पर क्या असर पड़ रहा है। लगता है, कुछ कंपनियों को है, और कुछ को नहीं है। या यूं कहिए कि कुछ कंपनियां अपने माल को आपकी सहानुभूति पाकर बेचना चाहती हैं, तो कुछ कंपनियां बेसिर-पैर की उटपटांग हरकतें दिखाकर। आपको ये बातें उल-जुलूल सी लग सकती हैं, क्योंकि आपने अपने टीवी पर इन विज्ञापनों को देखा तो है, उन पर गौर नहीं किया है। दो विज्ञापन एक साथ लीजिए। पहला तो है अंबूजा सीमेंट का, जिसमें एक ही परिवार में झगड़े के बाद दीवार खड़ी कर दी जाती है, और जब मौका आता है, तब इस खास सीमेंट से बनी दीवार टूटती ही नहीं। आखिर ‘अंबूजा सीमेंट’ से बनी दीवार जो है। दूसरा विज्ञापन है बिजली के तार का। कंपनी है हेवेल्स। इस विज्ञापन में एक छोटा सा लड़का अपनी मां को हाथ से आग पर रोटी सेंकते देखता है तो उसे तकलीफ होती है और वो इस कंपनी के तार को मोड़कर चिमटा बना लाता है, जिसे देखकर उसकी मां के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। अब दोनों विज्ञापनों का मर्म समझने की कोशिश कीजिए। पहले में जहां सीमेंट की वजह से दो भाईयों को परिवार चाह कर भी नहीं मिल पाता वहीं दूसरे विज्ञापन में बेटे से मां का दर्द देखा नहीं जाता और वो जुगाड़ तकनीक लगाकर अपनी मां को आराम पहुंचाता है। ये विज्ञापन आपको प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी की अनायास याद दिला जाता है, जिसमें छोटे से हामिद को उसकी दादी मेला घूमने के लिए चार आने देती है, और दूसरे बच्चे जहां मिट्टी के खिलौने खरीदते हैं, वहीं हामिद को याद आता है कि रोटी बनाते समय उसकी दादी के हाथ जल जाते हैं, इसलिए वो अपने पैसों से खिलौनों की जगह दादी के लिए चिमटा खरीद लेता है, और बच्चों को अपने हिसाब से उसका महत्व बताकर सबका हीरो भी बन जाता है। इन लाइनों का मकसद कहानी सुनाना नहीं है, बल्कि करीब करीब सौ साल पहले लिखी गई एक कहानी को आज के यथार्थ में देखना सुखद अनुभूति देता है (छोटे परदे पर ही सही।) क्योंकि एक तरफ ऐसी मजबूत सीमेंट है जो ईंटों में ऐसा जोड़ लगाती है कि दीवार नहीं टूटने देती, भले ही टूटे हुए रिश्ते जोड़ने में नाकाम हो, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा विज्ञापन भी है जो करंट के प्रवाह के लिए माध्यम तो जोड़ता ही है, रिश्तों को और भी प्रगाढ़ करता दिखाई देता है। गौर करने की बात है कि सीमेंट के दूसरे ब्रांड भी विज्ञापन करते हैं, लेकिन वे विकास को दिखाते हैं, उन बांधों को दिखाते हैं, जहां से हमें उपयोगी बिजली मिलती है। और तार का विज्ञापन दूसरे सीमेंट के विज्ञापनों की अगली कड़ी महसूस होता है। ऐसे में हमें ठहरकर थोड़ा सोचने की जरूरत है कि नकारात्मक सोच बनाने वाले विज्ञापन कितना कारगर हो पाएंगे, या फिर समाज में किस तरह की मानसिकता का निर्माण करेंगे?

सोमवार, 8 जून 2009

4. पत्रकार परांठें वाला?

पत्रकार परांठें वाला चर्चित हो रहा है। पाठक पूरी सक्रियता से उनका मनोबल बढ़ाने में लगे हैं। उनके पाठक उनके करीब तीन साल पुराने सपने को साकार होते हुए देखना चाहते हैं। उनके जिन पाठकों ने अब तक उन्हें चिट़ठी लिखी है वे सभी पेशे से पत्रकार हैं, लेकिन विडंबना है कि वे सभी परेशान भी हैं, और अब वे भी अपने पेषे का कोई विकल्प चाहते हैं। सभी पत्रकार पाठकों ने उनसे परांठें की दुकान खोलने के विचार को मूर्त रूप में साकार करने का निवेदन किया है। कुछ उनके काम में हाथ बंटाने को इच्छुक हैं तो कुछ उनके ग्राहक बनने को। परांठें वाले पत्रकार महोदय के पत्रकार पाठकों में से एक ने तो उनसे मैन्यू कार्ड भी बताने को कहा है, ताकि वे अभी से ही उन परांठों का स्वाद ले सकें, जो अभी भविश्य के गर्भ में ही हैं। वे कब मूर्त रूप लेंगे ये मालूम नहीं है। खैर, सहृदय पाठकों का आग्रह कभी तो उन्हें झकझोरेगा, कभी तो उनकी आत्मा भी जागेगी और जब ऐसा होगा वे अपने पाठकों को अपने परांठों का स्वाद चखाएंगें। फिलहाल तो उन्होंने अपने पाठक के विनम्र आग्रह पर अपने परांठों का मैन्यू कार्ड भेज दिया है। और इसे अपने इलाके में षेयर करने को कहा है। तो पाठकों की मांग और परांठें वाले पत्रकार की इच्छा पर ये मैन्यू दिया जा रहा है -
१- सतू परांठा - 20 रू. ( मैन्यू में सतू परांठें को पहला स्थान दिया गया है। दरअसल, सतू को बिहार का हाॅर्लिक्स भी कहा जाता है और ये चने से बनता है। बिहार में सतू का इस्तेमाल कई रूप में किया जाता है। जैसे दिल्ली वाले फास्ट फूड के दीवाने हैं, कुछ उसी तरह की दीवानगी बिहारवासियों में सतू के लिए होती है। तो उनकी जेब को ही देखते हुए इसकी कीमत बीस रूपए रखी गई है। मात्रा बढ़ने पर डिस्काउंट मिल सकता है।)
२- आलू परांठा - 15 रू. ( परांठें वाले पत्रकार महोदय के मैन्यू में दूसरे नंबर हैं आलू परांठा। चूंकि आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है तो स्वाभाविक है कि इसकी खपत भी ज्यादा होगी, लिहाजा इसकी कम कीमत और भरपूर खपत को देखते हुए आलू परांठें की कीमत पंद्रह रू. रखी गई है। वैसे भी दिल्ली में आलू परांठें चाहे जहां भी बिक रहा हो, जोर शोर से और डंके की चोट पर बिकता है।)
३- पनीर परांठा- 40 रू. ( आलू के बाद तीसरे नंबर पर है पनीर परांठा। राजधानी में जितनी खपत आलू परांठों की है उससे कम खपत पनीर परांठों की भी नहीं है, बल्कि ये कहें कि पनीर परांठों की मांग ज्यादा है तो गलत नहीं होगा। चूंकि पनीर महंगा है, और इस परांठे में लागत ज्यादा आती है तो परांठें वाले पत्रकार महोदय ने इसकी कीमत ग्राहकों की जेब देखकर ही रखी है, क्योंकि पनीर परांठें खाने की इच्छा रखने वाले छोटे मोटे आसामी तो होंगे नहीं। )
४- प्याज परांठा- 25 रू. (राजधानी में आलू और पनीर परांठों के बाद अगर किसी और चीज के परांठें की मांग है तो वो है प्याज परांठे की। ऐसे में अपने भाई ने प्याज परांठें को भी मैन्यू में षामिल किया है। हालांकि ये चैथे नंबर है। अब उन्होंने अपने बिहार वासियों के लिए थोड़ी सी छूट मांगी थी कि सतू परांठें को पहले नंबर पर रखा जाए। सो उनकी मांग को ध्यान में रखते हुए उन्हें ये जगह दी गई है।)
५- मिक्स वेज परांठा- कीमत... सब्जियों के रेट के हिसाब से। (परांठे वाले पत्रकार बंधु ने ये नया आईटम अपने मैन्यू में षामिल किया है। इसमें मौसमी सब्जियों को तरजीह दी जाएगी और कई सब्जियां शामिल कर परांठे बनाए जाएंगे। और इस परांठे की कीमत सब्जियों की कीमत के आधार पर तय की जाएगी।)
फिलहाल उन्होंने पांच तरह के परांठों की लिस्ट भेजी है। उन्होंने कहा कि उनके पास और भी आईटम है, लेकिन वो धीरे-धीरे सामने लाएंगे। और हां, मांसाहार करने वालों को भी निराष होने की जरूरत नहीं है। उनके लिए भी बहुत कुछ है, लेकिन वो अगली बार.....

शनिवार, 6 जून 2009

मेरा वक्त और तुम्हारी राय

परांठें वाले पत्रकार बंधु इन दिनों थोड़े परेशान हैं। उनके साथ दिक्कत ये भी है कि उनकी परेशानी उनके चेहरे पर दिखने लगती है। हालांकि उनके आॅफिस में कुछ ही लोग इसे भांप पाते हैं, लेकिन हकीकत यही है कि आजकल वे परेशान हैं। दरअसल उसकी एक वजह भी है। जिन चार पत्रकारों ने मिलकर परांठें की योजना पर अमल शुरू किया था, उनमें से एक पत्रकार भाई उस ग्रुप से पीछे हट गया है। वो शायद पत्रकारिता ही करना चाहता है। असल में उसे पत्रकारिता का कीड़ा काट गया है। वे स्थानीय खबरों में रूचि ही नहीं लेते, जितनी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खबरों में। तो परांठें वाले पत्रकार के लिए थोड़ी परेशानी जरूर हो गई है। हालांकि कुछ नये लोग जरूर शामिल होना चाहते हैं, लेकिन जब पुराने ही छिटक रहे हैं तो नये पर कैसे भरोसा किया जाए।
आजकल परांठें वाले पत्रकार बंधु की जेब फिर से गरम हो गई है। तो उन्हें भी गर्मी ज्यादा लगने लगी है। वे भी अक्सर कहीं न कहीं आराम करते हुए पाए जाते हैं। जब उनसे परांठें वाली योजना के बारे में पूछो तो अनमना सा उत्तर देते हैं- ‘वो तो करेंगे ही, बस टाईम का इंतजार है।’ अब ये तो वही जानते हैं या फिर भगवान जानता है कि उनका ये टाईम कब आने वाला है?
हालांकि कई बार उनकी बातों से संशय भी होता है कि वे परांठें लगाएंगे या नहीं। क्योंकि कई लोग उन्हें ये राय दे चुके हैं, संभल कर करना। नौकरी मत छोड़ना। नौकरी के अलावा कर सको, तो ठीक है। ऐसे में कैसे होगा। आखिर में परेशान होकर अपने इलाके में चले आए। कहा- यार, अपने पाठकों से ही एक सर्वे करवा लो, क्या करना चाहिए? ऐसे में मैंने तो अपने एक मित्र की पंसदीदा लाइनें उन्हें सुना दी। आप भी गौर फरमाइए-
हाथ भी नहीं मिलाएगा कोई/ जो गले लगोगे तपाक से
नये मिजाज का शहर है/ फासले से मिला करो
इसका जवाब जैसे वे घर से ही सोच कर आए थे। चार तथाकथित पत्रकारों में एक बंधु ये दो लाइनें अक्सर बोलते सुने जाते हैं, उन्होंने भी उनकी वही लाइनें मुझ पर चिपका दी-
तुम मेरे बारे में कोई राय मत कायम करना
मेरा वक्त बदल जाएगा, तुम्हारी राय बदल जाएगी।
तो सवाल आपके सामने है। जैसा मूड हो, उत्तर दीजिए। जैसी बन पड़े टिप्पणी कीजिए। आपके जवाब से ही कोई पत्रकार अकाल मौत मरने से बच जाएगा, और परांठें वाला बन जाएगा।

सोमवार, 1 जून 2009

अनुवादक बनते पत्रकार ?

पिछली दो पोस्ट में आपने परांठें वाले पत्रकारों के बारे में पढ़ा। ये अंतहीन कथा है, जो चलती ही रहेगी। लंच टाइम में जिन चार पत्रकारों से ये कथा शुरू हुई थी, वे पहाड़ों पर होटल की योजना बना रहे थे, परांठें वाले भाई साहब अगुवाई कर रहे थे। आप जानते ही हैं कि पहाड़ी रास्ते से गुजरते हुए रास्ते में कई मोड़ आते हैं, थोड़ी देर के लिए ऐसा ही एक मोड़ परांठें वाले पत्रकार महोदय के जीवन में भी आया। पेशे से पत्रकार थे तो थोड़ा पढ़े लिखे भी थे। उनके स्कूल वाले मित्र भी अब ठीक ठाक जगह पर पहुंच गए हैं, सो जब वे अपने दफ्तर में काम कर रहे थे, तभी अचानक एक मेल आया जिसमें उनके पढ़े लिखे मित्र ने उनसे कुछ अनुवाद करने को कहा था, अंग्रेजी से हिंदी में। परांठें वाले भाई साहब अनुवाद तो करते थे, लेकिन अनुवाद के लिए समय इतना कम था कि उन्होंने साफ तौर पर ना तो नहीं कहा, हां भी नहीं कहा। वे अपने पत्रकार मित्रों से राय करने लगे। एक पेज अनुवाद करने की कीमत थी 200 रूपये और करीब 25 पेज अनुवाद करने थे। कंगाली के दौर में सबने हिसाब भी लगा लिया। करीब 5000 हजार रूपये बनते थे। कम नहीं होते पांच हजार रूपये। उसमें भी जब जेब खाली हो। परांठंे वाले पत्रकार के मित्र टूट पड़े अनुवाद करने पर। पूरे जोर शोर से शुरू हुआ अनुवाद का काम, लेकिन परिणति तक पहुंचना तो दूर, एक पेज होते होते मेरे अभिन्न मित्रों की सांस फूल गई। दरअसल, वो एक यूनिवर्सिटी का आॅर्डिनेंस था, जिसे हिन्दी में छापकर देना था। इतने तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल था कि माथे पर बल पड़ गए। और एक पेज अनुवाद में जिन व्यावहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा... आप सोच भी नहीं सकते। कमिटी, स्पोंसर, चेयरमैन, हाॅस्पीटिलिटी जैसे शब्दों का हिन्दी अर्थ जानने के लिए न्यूजरूम में आवाज लगानी पड़ रही थी। स्पोंसर का मतलब बताओ तो दूसरे की आवाज आती... अरे, जरा ...... का मतलब बताना तो। ऐसा नहीं है कि वे अनुवाद नहीं कर सकते, या नहीं जानते। बहुत ही काबिल और योग्य हैं मेरे दोनों मित्र। लेकिन इन दिनों दौर ही ऐसा चल रहा है कि ना तो कुछ समझ में आता है, और ना ही कोई समझने की कोशिश करता है। दरअसल, वो कहते हैं ना, खाली दिमाग, शैतान का घर। तो कुछ उसी तर्ज पर आजकल हमलोगों के साथ भी हो रहा है। खाली जेब, आराम का घर। यानी जेब खाली है तो ना कहीं जाना है, और जब कहीं जाना ही नहीं तो खर्चा क्या करना है। है ना सही बात! आराम का आराम और बजत की बजत।
आप ऐसा बिलकुल मत सोचिए कि हमने टाॅपिक बदल लिया है। ये तो पहाड़ी रास्ते पर आया एक छोटा सा मोड़ था, जिस पर थोड़ी दूर जाकर हम वापस लौट आएंगे, दरअसल इसी बहाने कुछ नयी जगहों का भ्रमण भी हो जाएगा। और पहाड़ी रास्तों से याद आया, अपना एक और मित्र छुट्टियों से वापस लौट आया है। वो अपने घर गया हुआ था, उसका घर भी पहाड़ों पर ही है। हिमाचल का रहने वाला है वो। फ्रेंच कट दाढ़ी रखता है, टीवी पर भी आता है, और स्मार्ट भी दिखता है, इस बार तो वो अपने डोले शोले बना कर लौटा है। ये मेरे उन दो मित्रों में से एक है, जो आज अनुवाद का काम करने की असफल कोशिश कर रहे थे। हम थोड़ा आगे तक होकर आते हैं, तब तक आप इसी मोड़ पर थोड़ी देर के लिए ठहरिए। जल्द वापसी की गारंटी है।

शुक्रवार, 29 मई 2009

2. पत्रकार परांठें वाला ?

पिछली बार हमने बात की थी, पत्रकारों के नए कॅरियर की। अगर आपको याद न हो तो मैं दिला देता हूं। पिछले लेख हमने एक पराठे वाले पत्रकार भाई साहब का जिक्र किया था जो पिछले तीन साल से सिर्फ पराठे की दुकान खोलने की बात कहते थे, लेकिन कभी पहल नहीं करते थे, जब ये चर्चा आॅफिस में आम हो गई, और आॅफिस के एचआर को भी इसकी खबर लगी तो उन्होंने भी इस आइडिए को हाथोंहाथ लिया। हालांकि वे पराठे वाले भाई साहब अपनी आदत से मजबूर सेलरी मांगते मांगते ही उन्हें अपना पराठे वाला आइडिया सुना बैठे। एचआर साहब को अच्छा लगा। और तो और उन्होंने पार्टनरशिप की पेशकश तक कर डाली। परांठें वाले पत्रकार बंधू ने भी लगे हाथों शर्त रख दी। खर्च का साठ फीसदी तुम्हारा और चालीस फीसदी हमारा। और कमाई आधी-आधी। यकीन मानिए, एचआर महोदय को ये पराठे वाला आइडिया इतना अच्छा लगा कि उन्होंने भी बिना कुछ सोचे-समझे हामी भर दी। इसके साथ ही एचआर महोदय ने तो रेहड़ी की भी पेशकश कर दी, लेकिन पराठे वाले पत्रकार भाई को थोड़ा क्लास मेनटेन करना था, इसलिए वो वैन लगाना चाहते थे, सो इस तरह से पराठे वाले पत्रकार महोदय को एक साझीदार भी मिल गया। लेकिन वैन मिलने के बाद ही बात आगे बढ़ेगी। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले कुछ दिनों में ये दोनों बंधु मिलकर पत्रकारिता के अलावा भी कुछ और कर सकने की हालत में होंगे। इस तरह से पराठे वाले पत्रकार बंधू का पहले वाला विकल्प फिर से जवां हो गया है। हालांकि ऐसा नहीं हो पाने की स्थिति में उनके पास माता के दरबार वाले इलाके में भद्र पुरूष के होटल में काम मिलना तय तो है ही। हमने पिछली बार कहा था कि उन भद्र सज्जन की वहां टैक्सी भी चलती है और जो पत्रकार बंधु अपना पेशा बदलने की चाहत रखते हैं, वे संपर्क कर सकते हैं। उसका भी असर हुआ है। कुछ पत्रकार बंधुओं ने अपना बायोडाटा भेजा है, और विकल्प की तलाश में जोर-शोर से लगे हैं, लेकिन अभी कई औपचारिकताएं बाकी हैं, ऐसे में जगह अब भी खाली है। तो जो सज्जन पत्रकार विकल्प तलाश रहे हों, वे अब भी संपर्क कर सकते हैं।

गुरुवार, 28 मई 2009

1. पत्रकार परांठें वाला ?

चार पत्रकार एक साथ बैठे थे। योजना बना रहे थे, अपने भविष्य की। दरअसल, सभी परेशान थे अपने आज से, परेशान थे, कल क्या करेंगे। कुछ शादीशुदा थे, कुछ कुंवारे थे। जो शादीशुदा थे, उनने अपने प्रेम को बचाए और बनाए रखने के लिए शादी की थी, जो कुंवारे थे, वे शादी से पहले सेट्ल होने का इंतजार कर रहे थे। सभी न्यूज चैनल में काम करते थे, लेकिन विडंबना देखिए, सेट्ल होने का इंतजार कर रहे थे।

ऑफिस में लंच hour चल रहा था, ये सभी गहरे विचार मंथन में डूबे थे, क्या करें? कैसे करें? तो उनमें से एक ने कहा- ज्यादा चिंता मत करो, कुछ नहीं तो गांव में अपनी काफी प्रोपर्टी है। एकदम झकास। वहीं होटल चलता है। मेरा मन तो होटल के काम में कभी लगा नहीं, लेकिन जब जेब खाली होती है तब गल्ले पर बैठ जाता हूं। सबलोग वहीं चल चलेंगे और काम करेंगे। कहीं दूर पहाड़ों में है उनका गांव। माता के दरबार के आसपास कहीं। उन सज्जन ने सबके लिए काम भी तय कर लिए। उनमें से एक तथाकथित पत्रकार को खाना बनाने का शौक था, और वो अक्सर परांठें की दुकान खोलने की बात करते थे, कोई भी, कुछ भी विचार कर रहा हो, चाहे राजनैतिक बातचीत हो रही हो, या प्रबंधन की अव्यवस्था का रोना रोया जा रहा हो, या कोई दूसरी नौकरी खोजने की बात कर रहा हो, वे बस अपनी परांठों की दुकान लेकर बीच में ही कूद पड़ते। ये अलग बात है कि वे भद्र पुरूष पिछले करीब तीन बरसों से पराठों की दुकान खोलने की बात कह रहे हैं, सिर्फ बात ही कह रहे हैं। तो उन्हें जिम्मा मिला होटल में बावर्चियों की देख रेख और खाने के प्रबंधन का। याद रखिए, ये लंच टाइम में बनाया जा रहा प्रोग्राम है। दूसरे तथाकथित पत्रकार काफी ज्ञानी थे, काफी पढ़े लिखे भी थे, सो उनके ज्ञान पर शंका करना जैसे अपने आप पर शंका करना हो। जैसे आपके कंप्यूटर में गूगल सर्च काम करता है, कुछ उस तरह के ज्ञानी थे वे। चाहे कुछ भी पूछ लीजिए, वो उसका वर्तमान, इतिहास, और भविष्य सबकुछ दिल खोल कर बताने की इच्छा रखते थे, जबतक कोई उनसे चुप रहने को ना कह दे, वो शांत ही नहीं होते, इसलिए लोग उनसे इसी शर्त पर पूछते थे, कि जितना पूछें, उतना ही बताना। तो उस बैठक में उन्हें काम मिला होटल के बाहर ग्राहकों को ज्ञान देने का।

सभी मौज में थे। सबके सब सपने देखने लगे। पहाडों की हसीन वादियों में रहना, खाना... बिलकुल मुफ्त। और कमाई अलग से। समझिए बोनस मिल रहा हो, तो इससे बढ़िया भला और क्या हो सकता है। प्लान बन गया है, देखिए कब तक इस पर अमल हो पाता है। या फिर परांठें की दुकान खोलने वाले भाई साहब की तरह ये प्रोग्राम भी तीन साल आगे टल जाता है। बहरहाल, एक प्रोग्राम बना है, ये भी अपने आप में बड़ी बात है।

और हां, होटल वाले भाई साहब की तो वहां गाड़ियां भी चलती हैं, तो कुछ और लोगों के लिए भी जगह बन सकती है, फिलहाल इंतजार है, उन सज्जनों का, जो अखबार या टीवी चैनल में नौकरी कर रहे हैं, और अपना प्रोफेशन बदलना चाहते हैं।

मुझे उम्मीद है कि ऐसे कई सज्जन हमारे बीच जल्द ही पाए जाएंगे, और जैसे ही वे मिलेंगे, इस लंच टाईम के गहन विचार पुराण को हम आगे बढ़ाएंगे। तब तक के लिए इंतजार कीजिए...

मंगलवार, 26 मई 2009

नेताओं के वादे

चुनाव के दौरान नेताओं के किए हुए वादे उतने ही सच हैं, जितना कटघरे में खड़ा हर गवाह, गीता की सौगंध खाने के बाद बोलता है। आप कह सकतें हैं कि पूर्वाग्रह है लेकिन आप भी हैं नेता भी हैं और मैं भी हूँ.

नेता क्यों रिटायर नहीं होते?

मास्टर हो या लेकचरर,

रीडर हो या प्रोफेसर,

सभी रिटायर होते हैं।

वकील हो या बैरिस्टर,

क्लर्क हो या कलेक्टर,

निर्धारित उम्र के बाद,

सभी रिटायर होते हैं।

नौकर हो या दुकानदार,

लुटेरा हो या पाकेटमार,

निर्धारित उम्र के बाद,

सभी रिटायर होते हैं,

भावी पीढ़ी के लिए

जगह छोड़ते हैं,

फिर,

नेता क्यों रिटायर नहीं होते

उनकी रिटायरमेंट की उम्र क्यों नहीं होती

वे रिटायर तभी क्यों होते हैं

जब मर जाते हैं?

या

भावी पीढ़ी द्वारा मार दिये जाते हैं।

गुरुवार, 21 मई 2009

यही राजनीति है.

अंग्रेज़ी स्कूल का एक छोटा सा बच्चा देखता है - एक खद्दरधारी को हथकडी डाले पुलिस ले जा रही है, पापा, हु इस ही ? बच्चा पूछता है, वह नेता है। थोडी देर बाद वह छुट कर आता है, व्हाट इस दिस, पापा बच्चा फ़िर पूछता है? पिता सिर झुका कर उत्तर देते हैं- बेटा, यही राजनीति है.

गुरुवार, 14 मई 2009

आज के नेता

गिरगिट, केवल प्राण रक्षा के लिए रंग बदलता है, लेकिन, नेता सत्ता लोभ में दल बदलते हैं, घोटाले, सिर्फ़ घोटाले करते हैं और भ्रष्टाचार फैलाने की राजनीति