मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं?

हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं ? इस लाइन से कुछ लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है, लेकिन मकसद ठेस पहुंचाना नहीं है। दरअसल पिछले दिनों आई एक किताब पढ़ने के बाद मन में अनायास ही ये सवाल आया कि हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं ? जिस किताब को पढ़ने के बाद ये ख्याल आया, वो है, ‘क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?’ ये किताब खास तौर से भारतीय मुसलमानों को आधार बना कर लिखी गई है। जिसमें उनकी परेशानियों का वर्णन किया गया है। इस किताब के लेखक हैं पंकज चतुर्वेदी जो पिछले उनतीस वर्षों से पत्रकारिय लेखन कर रहे हैं।
इस समय देश में मुसलमानों की छवि को लेकर एक अलग धारणा बनी हुई है। आप चाहे जहां भी बैठे हों अगर मुसलमानों की चर्चा हुई तो आपको कई बातें एक साथ सुनने को मिलेंगी। मुसलमान आतंकवादी होते हैं। कई शादियां करके ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं, वे देश में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देंगे। आम मुसलमान भारत को अपना देश नहीं मानता। कश्मीर की समस्या हिन्दू-मुस्लिम विवाद है। मुसलमान राष्ट्रगीत नहीं गाते। सरकार मुसलमानों का तुष्टिकरण करती है। इस तरह की बातें करने वालों में ज्यादा संख्या युवाओं की है, जिन्होंने मुसलमानों को सिर्फ और सिर्फ मीडिया के जरिए ही जाना है। इनकी अपनी कोई राय नहीं है, लेकिन टीवी में देखकर और अखबारों में पुलिसिया बयानबाजी की रिपोर्टें पढ़कर इन लोगों ने ये राय बना ली है।
पंकज चतुर्वेदी ने इन्हीं सब पर विस्तार से लिखा है। आतंकवाद फैलाने के लिए जो लोग मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं और यह कहते फिरते हैं कि ‘सभी मुसलमान भले आतंकवादी ना हों, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ उनके लिए लेखक ने नक्सलवादियों और ‘अभिनव भारत’ की कारगुजारियों का खाका भी खींचा है। हालांकि उन्होंने साफ किया है कि ‘‘नक्सली, उत्तर-पूर्वी राज्यों या ‘अभिनव भारत’ के कुकर्मों को सामने रखने का मंतव्य यह कतई नहीं है कि कश्मीर, लश्कर या हिजबुल को मासूम सिद्ध किया जाए। गौर करने वाली बात यह है कि जब बंदूक बारूद का मिजाज एक-सा है, और उससे बहे खून का रंग एक है तो कानून व राष्ट्रवाद की परिभाषाएं अलग-अलग क्यों हैं?’’
लेखक का यह सवाल जायज भी है। क्या मजहब अलग-अलग होने से हिन्दू और मुसलमान के जुर्म की सजा अलग-अलग हो सकती है? नहीं। लेकिन यहां सजा की बात ही नहीं है। हमारे समाज में ‘हिन्दू’ अगर कहीं आतंक फैलाता है, बम फोड़ता है तो यह आतंकवादियों को करारा जवाब है, जिसे शिवसेना जैसे कुछ क्षेत्रीय दल प्रश्रय भी देते हैं, लेकिन हकीकत में हुई आतंकवादी घटनाओं के लिए भी निर्दोष मुसलमानों को निशाना बना लिया जाता है। क्योंकि वे सॉफ्ट टारगेट होते हैं। तर्क वही, जो पहले लिखा गया है।
पंकज लिखते हैं कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर पूरे देश में चौकसी बढ़ जाती है, पुलिसवाले कई (मुसलमान) आतंकवादी पकड़ते हैं, कुछ एनकाउंटर में मारे जाते हैं, कुछ भाग जाते हैं। काफी असलाह बरामद होता है, लेकिन ये कहीं जमा नहीं होता। पकड़े गये लोग जेलों में सड़ते रहते हैं और असलहे कबाड़ में। इनका कोई रिकॉर्ड नहीं है। ये काम पुलिस अपनी कमियों को ढंकने के लिए करती है, मामले बरसों चलते रहते हैं। दसियों साल तक सुनवाई नहीं होती, लेकिन सभी चुप हैं। बोलते हैं तो सिर्फ वे जो खुद को ‘देशभक्त’ कहते हैं।
लेखक ने इस किताब के जरिए बेहतरीन आंकड़े उपलब्ध कराए हैं। जिनमें हिन्दू और मुसलमानों के बीच तुलना की गई है। चाहे आबादी की बात हो या शिक्षा की, राजनीति की हो या सरकारी नौकरियों की। बात-बात में मुसलमानों में बहु शादी प्रथा पर निशाना साधने वाले कहते हैं कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं और जल्द ही देश के बहुसंख्यकों को पीछे छोड़ देंगे। लेकिन समाजविज्ञानी कहते हैं कि अगर मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार रही तो भी उन्हें ‘हिन्दुओं’ के बराबर पहुंचने में 3,626 साल लगेंगे। फिर इस तरह का प्रचार क्यों किया जा रहा है ? जिन हिन्दुओं को बहुसंख्यक होने के नाते अल्पसंख्यकों से बड़े भाई सरीखा बर्ताव करना चाहिए, वे ही उन्हें परेशान करने में क्यों जुटे हैं ? जबकि उनके वोट पाने के लिए बड़े से बड़ा हिन्दूवादी नेता भी धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनने से नहीं हिचकिचाता। पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेकुलर बता आता है।
लेखक ने राज्यवार आंकड़े इकट्ठे किये हैं- जिनसे साफ पता चलता है कि सरकारी नौकरियों में मुसलमान कम हैं, राजनीति में भी कम है। साक्षरता के मामले में भी वे औसत ही हैं, लेकिन उम्र बढ़ने के हिसाब से अनुपात घटता जाता है और स्नातक स्तर तक पहुंचते-पहुंचते ये आंकड़ा 3 से 3.5 फीसदी के बीच रह जाता है। जबकि जेल में बंद मुस्लिम कैदियों की संख्या आनुपातिक रूप से ज्यादा है।
इस किताब को चार अध्यायों में बांटा गया है। 1.सबसे बड़ा इल्जामः बेवफाई। 2. पर्सनल लॉ। 3. ऐसी तुष्टि से तो असंतुष्टि भली। और 4. परिशिष्ट।
तीसरे अध्याय में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट की खास बातों को संक्षेप में दिया गया है जबकि परिशिष्ट में पंडित जवाहर लाल नेहरू के एक लेख का अंश और मुंशी प्रेमचंद का भाषण शामिल किया गया है।
‘क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?’ की भूमिका प्रो. विपिन चंद्रा ने लिखी है। वे लिखते हैं ‘‘यह पुस्तक देश के मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और बौद्धिक हालत का लेखा-जोखा तो प्रस्तुत करती ही है, एक ऐसी साम्प्रदायिक सोच को बेनकाब भी करती है जो कि समूचे मुसलमानों को संदिग्धता के सवालों में घेरने का प्रयास होता है। भारत का समग्र विकास तभी सम्भव है जब यहां का प्रत्येक बाशिंदा समान रूप से तरक्की करे। ऐसे में मुल्क की उस 14 फीसदी आबादी के सामाजिक-आर्थिक तरक्की को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है जो हुनरमंद है, तरक्कीपसंद है और मुल्कपरस्त है। मुसलमान या इस्लाम ना तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विपरीत हैं और ना ही उन्हें कोई विशेष लाभ या तुष्टिकरण किया जा रहा है। ऐसे ही कई तथ्यों का आंकड़ों के आधार पर किया गया आकलन साम्प्रदायिक सोच से जूझने का एक सार्थक प्रयास है।’’
किताब का नामः क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?
लेखकः पंकज चतुर्वेदी
मूल्यः रूपये 175
प्रकाशकः शिल्पायन,10295, लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा, दिल्ली 110032