गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

नवोदय और सरकारी स्कूल

गांधी जयंती पर, जब पूरा देश छुट्टी मना रहा था, दिल्ली के झंडेवालान का एक सेमिनार हॉल गुलजार था। देश के तमाम नवोदय विद्यालयों से निकले छात्र इकट्ठा हुए थे। पहले बैच से लेकर इस साल पास आउट करने वाले भी। ज्यादातर सेटल्ड। कोई नौकरी कर रहा था, तो कोई व्यापार। मेडिकल, इंजीनियरिंग, वकालत, एकाउंटेंसी, पत्रकारिता हर क्षेत्र में नवोदय के छात्रों की पहुंच है, पकड़ है। तमाम पेशे से जुड़े नवोदय के इन पुराने  छात्रों के एकजुट होने का एक मकसद था। नवोदय में पढ़ रहे या इस साल 12वीं पास आउट करने वाले छात्रों की कॅरियर काउंसलिंग। नेक विचार है। अगर ईमानदार भी हो ? जिस संस्था से आप बरसों जुड़े रहे हों, वहां तमाम सुविधाओं का फायदा उठाकर अपना कॅरियर बनाया हो, वहां के छात्रों के उज्ज्वल भविष्य के बारे में सोचना, सोच कर ही अच्छा लगता है। 

नवोदय विद्यालयों में पढ़ाई के साथ-साथ रहने, खाने से लेकर खेल-कूद तक हर तरह की सुविधा दी जाती है। ऐसे में जब इस मीटिंग के अगले ही दिन तीन अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकारों को सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाने का आदेश दिया तो अनायास ही अपने नवोदय विद्यालय की याद ताजा हो गई। जहां हर तरह की सुविधा मिलती थी। 

एक तरफ तो सरकारी स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय, किचन शेड, बिजली, और चारदीवारी तक की व्यवस्था नहीं है। शिक्षकों की कमी है। जो हैं, उनके पास पढ़ाने के अलावा और कई दूसरे काम हैं। ये दो तस्वीरें हैं सरकारी शिक्षा व्यवस्था की। एक तरफ सरकारी स्कूलों में जहां पीने के पानी की व्यवस्था तक नहीं है, वहीं दूसरी ओर नवोदय विद्यालय में नहाने और कपड़े धोने का साबून, तेल, टूथेपस्ट, ब्रश, कपड़े, तमाम चीजें मुफ्त मिलती थीं। यहां विद्यालय परिसर में ही शिक्षक भी रहते थे, जो 24 घंटे मदद के लिए तैयार रहते थे। मुझे जवाहर नवोदय विद्यालय, सुपौल, (बिहार) से निकले हुए 13 साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी लगता है कि जैसे कल ही बात हो। काश! सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन हो, और नवोदय जैसी सुविधाएं तमाम सरकारी स्कूलों में भी मिलें तो कितना अच्छा हो ? 

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

100 रुपये में मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई



शनिवार को दिल्ली में दो नेत्रियों ने दहाड़ लगाई। दोनों अपने-अपने राज्य की मुखिया। एक तरपफ ममता थी तो दूसरी तरफ शीला। ममता फूफकार रही थी तो शीला चुप करा रही थी। मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के विरोध में पश्चिम बंगाल से जंतर-मंतर पहुंची ममता बनर्जी ने जनता को आवाज लगाई और केंद्र सरकार को चेताया भी कि जंतर-मंतर की भीड़ में बंगाल से लाए हुए लोग नहीं हैं। अगर दो रेलगाड़ी भी भर कर ले आती तो क्या हाल होता? क्या ममता सच कह रही हैं? पश्चिम बंगाल से कोई नहीं आया? चलिए मान लेते हैं। 


दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आवास पर जो मोर्चा निकाला गया, उसमें भी काफी संख्या में लोग दिखाई दिए। शोर-शराबा। धक्कमपेल। हंगामा। शीला को लोगों से चुप रहने की अपील करनी पड़ी। ये मोर्चा मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के समर्थन में था। 28 अक्टूबर को होने वाली रैली की योजना के लिए था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस रैली की अगुवाई करेंगी। बानगी दिखानी थी। भीड़ जुटानी थी। मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के प्रति लोगों की दीवानगी दिखानी थी। लोगों को लाया गया। भाड़े पर। शनिवार की देर रात जब घर वापसी पर बुराड़ी पहुंचा तो चैराहे पर भीड़ थी। मस्त युवा। नशे में पस्त युवा। 100 रुपये नकद भी मिले थे। किसने दिये? नहीं पता। क्यों दिए? शीला के घर जाने के लिए। और क्या चाहिए? बेरोजगार और निठल्ले लोगों को 100 रुपये और मुफ्त की शराब मिल जाये तो कहने ही क्या? 


शीला की मानें तो मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई लागू करने वाला दिल्ली पहला राज्य हो सकता है। मनीष तिवारी भी कहते नहीं अघाते कि चीन ने 1992 में मल्टीब्रांड रिटेल में 100 पफीसदी एफडीआई दे दी थी। लेकिन हमारे नेताजी ये क्यों नहीं देखते कि चीन में कितनी बेरोजगारी है? एक आम चीनी नागरिक को जीने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ रहा है? नेताओं की मौज तो वहां भी वैसी ही है, जैसी अपने यहां है। प्रधानमंत्री की एक थाली 7,723 रुपये की!