शनिवार, 16 जनवरी 2010

पढ़ना लिखना सीखो, लेकिन किससे ?

पढ़ना लिखना सीखो, मेहनत करने वालों, गाय चराने वालों, बोझा ढोने वालों। पढ़ना लिखना सीखो, चूहा मारने वालों, भेड़ चराने वालों, गाय चराने वालों। उन्नीस सौ नब्बे-इक्यानवे में ये नारा दिया था स्वनामधन्य, गरीबों के मसीहा लालू प्रसाद यादव ने। लेकिन ऐसा लगता है कि उनकी बात कुछ लोगों ने मानी, ज्यादातर लोगों ने नहीं मानी। तब बिहार में उन्होंने चरवाहा विद्यालय भी बनवाए। करीब बीस साल होने को आए, लेकिन मजदूरी करनेवाले, बोझा ढोने वाले, गाय, भेड़ चराने वालों ने पढ़ना लिखना नहीं सीखा। और ना ही उनकी ऐसी कोई मंशा है। ऐसा लगता है कि उनकी समझ में पढ़ने लिखने से पेट भरने वाला तो है नहीं। फिर काहे के लिए पढ़ने लिखने में समय खराब किया जाए। लेकिन कुछ लोगों ने उनकी बात मान भी ली। और अपने बच्चों को पढ़ने लिखने के लिए भेज दिया। लेकिन उनकी हालत ज्यादा अच्छी है नहीं। एक रिपोर्ट आई है। जिसमें कहा गया है कि ग्रामीण इलाके के स्कूलों में पांचवीं में पढ़ने वाले बच्चे दूसरी क्लास की किताबें भी नहीं पढ़ पाते। इसके लिए इन स्कूलों के मास्टर साहब भी उतने ही जिम्मेदार हैं। मानव संसाधन मंत्री कहते रहें कि शिक्षा तंत्र में बदलाव किया जाएगा, लेकिन फायदा क्या है? जिन ग्रामीण इलाकों में ये हाल है, वहां अब नवाब बनने की परिभाषा बदल गई है। पहले कहते थे- पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे, होगे खराब। लेकिन खिलाड़ियों की सफलता के बाद ये परिभाषा बदल गई है। अब कहते हैं- खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब, पढ़ोगे लिखोगे होगे खराब। तो अब बच्चों ने दूसरी परिभाषा पर अमल करना शुरू कर दिया है। उन्हें लगने लगा है कि पढ़ने लिखने से क्या होगा? सब खुद को सचिन बने ही देखना चाहते हैं। लालू जी, कपिल जी लगाते रहें नारे, करते रहें शिक्षा तंत्र में बदलाव। उनके लिए तो पढ़ना लिखना समय की बर्बादी है। और कोई भी अपना समय बर्बाद करना नहीं चाहता। फिर चाहे मजदूरी करनी पड़े, बोझा ढोना पड़े, गाय चरानी पड़े। चलो अच्छा भी है, बिहार में चुनाव आने वाले हैं, लालू जी इसी बहाने एक बार फिर अपना बीस साल पुराना राग दोहरा सकते हैं। पढ़ना लिखना सीखो, मेहनत करने वालों, गाय चराने वालों, बोझा ढोने वालों। पढ़ना लिखना सीखो, चूहा मारने वालों, भेड़ चराने वालों, गाय चराने वालों.........

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

आसमान में जमीन

अब जमीन के भाव आसमान पर पहुंच गए हैं। लोगों के पास खूब पैसा आ रहा है, इसलिए वे जमीन में पैसे लगा रहे हैं। जिससे जमीन और महंगी होती जा रही है। दिल्ली में भी जमीन की दिक्कत है। इसलिए लोगों ने ग्राउंड फ्लोर के उपर वाली मंजिलों के छज्जे बाहर गली में बना दिए हैं। कुछ ने तो पूरा कमरा ही निकाल लिया है। जमीन की किल्लत है, करें क्या? हवा में ही अतिक्रमण कर रहे हैं। जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है। तो अतिक्रमण में क्या बुराई है?

इन दिनों जमीन काफी अहम हो गई है। हर कोई ज्यादा से ज्यादा जमीन की जुगत में लगा है। मजूर, किसान, शिक्षक, उद्योगपति, खिलाड़ी, कलाकार हर कोई पूरी कोशिश कर रहा है कि उसे यहां, वहां या जहां भी थोड़ी जमीन मिल जाए। लेकिन कामयाबी किसी किसी को ही मिलती है। जमीन पाने की कोशिश में लगे किसानों के जमीन गंवाने की ही कहानियां सुनाई देती हैं। वहीं बाॅलीवुड कलाकारों के किसान बनने के किस्से भी चर्चेआम रहे। अमिताभ बच्चन, आमिर खान, रानी मुखर्जी और भी कितने नाम हैं। डाॅक्टर, इंजीनियर और वकील सभी जमीन के जुगाड़ में हैं। औरों की तो छोड़िए, अब तो सेना के बड़े अधिकारी भी जमीन के पीछे भागते दिखाई देने लगे हैं। बड़े, बड़े उससे भी बड़े अधिकारी जमीन चाहते हैं। पता नहीं, अपने लिए चाहते हैं या देश के लिए चाहते हैं। चीन एक एक इंच करके भारत की जमीन हड़प रहा है, उसे नहीं रोक रहे हैं। थोड़ा थोड़ा करके वो हमारे ही देश में घुसा चला आ रहा है, लेकिन लोग सिलीगुड़ी की जमीन में ही उलझे हैं। सीमा से बहुत दूर, इसलिए लगता है कि ये लोग जमीन अपने लिए ही चाहते होंगे।

एक मित्र के दादा जी ने बताया कि उन्नीस सौ छियासी में दिल्ली आए थे तो कुतुबमीनार के पास सिर्फ जंगल होता था, गुड़गांव में भी बसावट नहीं थी। मित्र ने छूटते ही कहा - तभी कुछ जमीन खरीद ली होती तो वे भी आज करोड़पति होते। लेकिन उसने अपने दादा जी की गलती से सीख ले ली है। वो समझदारी दिखा रहा है। उसने अभी से ही चांद पर जमीन खरीद ली है, ताकि कल को अगर चांद पर काॅलोनी बने, तो उसके बच्चे पोते उसे न कोसें। उन्हें पृथ्वी जैसा गरीबी भरा जीवन वहां न जीना पड़े। चांद पर ये जमीन खरीदने के लिए उसे अपने परिवार का पेट काटना पड़ा तो क्या हुआ? बच्चों का ट्यूशन छुड़ाना पड़ा तो क्या हुआ? जमीन भी तो बच्चों के लिए खरीदी है ना!