सोमवार, 13 दिसंबर 2010

कौन बचा रहा है संसद की गरिमा

संसद के हमले की नौंवी बरसी। नौ साल पहले आज के ही दिन हुआ था देश की संसद पर हमला। देश की गरिमा को तार तार करने की कोशिश हुई थी। आतंकवादी संसद तक पहुंच भी गये थे, लेकिन हमारे जवानों ने जान की बाजी लगाकर उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया था। इस कार्रवाही में आठ जवान शहीद हो गये थे। हर साल की तरह इस बार भी संसद परिसर में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि दी गई। सभी राजनैतिक दल आतंकवाद के खिलाफ एकजुट दिखाई दिये। मानों कह रहे हों, हम साथ साथ हैं। और हमारा ये साथ कभी नहीं छूटने वाला है। जब सभी राजनीतिक दल एकजुटता दिखा रहे थे तब समय हुआ था दस बज कर पैंतालिस मिनट। करीब दस मिनट तक चला श्रद्धांजलि कार्यक्रम... इसके बाद फिर सभी माननीय सदस्य बढ़ चले सदन की तरफ। अब समय हुआ था.... ग्यारह बजकर दो मिनट। सदन के बाहर जो माननीय सदस्य एक साथ दिख रहे थे, वे हंगामा करने लगे। सदन की कार्यवाही में बाधा डालने लगे, जो शीतकालीन सत्र के शुरू होने के बाद से एक दिन भी नहीं चल पाई है। लेकिन इसकी फिक्र किसे है। बाहर साथ साथ थे, लेकिन सदन में जैसे एक दूसरे से मतलब ही नहीं है। जिस संसद की गरिमा बचाने के लिए आठ जाबांज शहीद हो गये थे, उसी संसद की गरिमा को अपने ही लोग लहूलुहान करने में लगे हैं... क्या अच्छा नहीं होता... कि जैसी एकजुटता इन लोगों ने आतंकवाद के खिलाफ दिखाई, वैसी ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भी दिखाते।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मुन्नी बदनाम हुई...

पिछले महीने एक गाना लोगों की जुबां पर चढ़ बैठा। मुन्नी बदनाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए। मुन्नी कुछ इस तरह बदनाम हुई कि सिर्फ देष में नहीं, बल्कि पाकिस्तान में भी ‘मुन्नियों’ के लिए घर से निकलना जी का जंजाल बन गया। जिधर जातीं, बदनामी पहले ही पहुंच जाती। लेकिन भैया जी कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा। लगता है भैया जी की बात सुनी जा रही है। आजकल भ्रश्टाचार का बोलबाला है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ किसी न किसी तरह से इसके षिकार हैं। भ्रश्टाचार की चर्चा सरेआम है। हर वो आदमी इसकी चर्चा कर रहा है, जो खुद भी भ्रश्ट है! अगर भ्रश्ट नहीं है तो मौके की फिराक में है। बस, एक बार की चाहत है, उसके बाद जरूरत ही नहीं पड़ेगी। रोज नये खुलासे। चाहे क्रिकेट का खेल हो या फिर राजनीति का। सबकुछ बिक रहा है। जमीर की तो कीमत सबसे ज्यादा है। सस्ता नहीं बिकता! जब तक लाखों करोड की बात ना हो, इसका बिकना नामुमकिन है। अपने मुलायम सिंह यादव को ही देखिए। बताया जा रहा है कि मुलायम सिंह उतने मुलायम नहीं हैं, जितने दिखते हैं। तभी तो गरीबों के हक का दो लाख करोड़ का अनाज डकार गये, और भनक तक नहीं लगने दी। वो तो लालू यादव थे जो महज नौ हजार करोड रूपये का चारा चुपचाप नहीं पचा सके। आखिर जानवरों का था, हजम भी कैसे होता। लेकिन कहते हैं ना, ज्यादा खाओ तो अपच हो जाता है, वैसा ही मुलायम सिंह के साथ होता दिख रहा है। घोटालेबाजों के पास घोटालों का पूरा इतिहास भी है। कहते हैं आजाद भारत में पहला घोटाला जीप घोटाला था, जाहिर है, तब हम इतने आधुनिक नहीं थे। और जीप भी महंगी सवारी ही थी। इतना ही नहीं, करने वालों ने तो साइकिल आयात के नाम पर भी घोटाला किया था। ऐसा नहीं है कि घोटाला सिर्फ नेताओं की बपौती है। अब तो सभी घोटाला कर रहे हैं। पहुंच-पहुंच की बात है। जिसके हाथ जितने लंबे हैं, वो उतना बड़ा घोटाला कर सकता है। बस आप कुछ भी हों, आम आदमी ना हों, नही ंतो आपके जिम्मे बिजली चोरी या कर चोरी जैसी छोटी चोरियां ही आएंगी, क्योंकि मोटी चोरी पर तो उनका एकाधिकार है, जो किसी न किसी तरह से रसूख वाले हैं। ये अलग बात है कि पिछले कुछ महीनों से केंद्र सरकार के मंत्री घोटालों को लेकर उतने बदनाम हो गये हैं जितनी बदनाम झंडू बाम लगाने वाली मुन्नी भी ना हुई।

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

दिल्ली, दुनिया और ग्रामीण संस्कृति

तीन अक्टूबर की रात, पूरी दुनिया ने दिल्ली को एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनते हुए देखा। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स की ओपनिंग सेरेमनी में दुनिया ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति की झलक देखी। हम दुनिया से बाहर नहीं, सो हम भी सरकारी टीवी पर दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय बनने के गवाह बने। राष्ट्रगीत से शुरू हुआ कार्यक्रम करीब तीन घंटे के सांस्कृतिक प्रस्तुतियों और दुनिया भर से आए करीब सात हजार खिलाड़ियों की परेड के बाद ऑस्कर विजेजा अल्लारक्खा रहमान के कॉमनवेल्थ थीम सॉंग के साथ खत्म हुआ। देश के कई राज्यों से आए कलाकारों ने अपनी लोककलाओं और नृत्य का प्रस्तुतिकरण करके मन मोह लिया। लेकिन जब ट्रेन की शक्ल में झांकियां आईं तो मन खट्टा हो गया। एनांउसर कह रहा था भारत की ग्रामीण संस्कृति की झलक पेश की जा रही है। और ये सही भी था। वाकई उद्घाटन समारोह के दौरान दिखाई जाने वाली झांकियां हमारे देश की संस्कृति की ही प्रतिरूप थीं, जिनमें लोहार, मजदूर, नेता, रिक्शे वाले, सभी अपना अपना योगदान दे रहे थे। ये देखते हुए ही ख्याल आया कि जिन चीजों को हम ग्रामीण भारतीय संस्कृति कह कर दिखा रहे हैं, उन्हें ही दिल्ली से क्यों गायब कर दिया गया? क्या ये सिर्फ झांकियों में दिखाने के लिए रह गये हैं, या फिर मांज कर, चमकाकर दिखाने की चीज बन गये हैं? मन में सवाल उठा- क्यों साउथ दिल्ली की सड़कों पर रिक्शे वाले नहीं दिख रहे? झांकी देखकर खुद ही जवाब दिया- क्योंकि वे जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में आ गये हैं। अब खेलों के दौरान आने वाले मेहमान देश की ग्रामीण संस्कृति से हकीकत में भले ही रूबरू ना हो सकें, लेकिन आयोजन समिति ने स्टेडियम में ही उन्हें दिखाकर कुछ तो दिखला ही दिया। दूसरा सवाल आया- क्यों सड़क किनारे पटरी पर मेहनत करके जीवन यापन करने वालों को हटा दिया गया? क्या कॉमनवेल्थ के गरिमामयी उद्घाटन से ही उनकी रोजी रोटी चल जाएगी? इस सवाल का जवाब झांकी देखने पर नहीं मिला। क्योंकि तीन अक्टूबर को ना तो सड़क किनारे ही वे लोग दिखाई दिये, और ना ही स्टेडियम में। ‘देश की इज्जत का सवाल’ था, इसलिए मन ने कहा- चलो सब ठीक है। जाने दो। लेकिन जब ये कार्यक्रम चल रहा था तभी गांव से मां का फोन आया- हाल चाल लिया। बैकग्राउंड से बाबू जी की आवाज सुनाई दी, दिल्ली में खेल होने वाला है? मैंने मां से कहा- नेशनल टीवी चैनल पर आ रहा है, लगाकर दिखा दो। मां ने मायूसी भरा जवाब दिया- बिजली तो रात के बारह बजे आएगी। एक तरफ तो दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स का भव्य आयोजन करके देश का नाम दुनिया में बढ़ाया जा रहा है, दूसरी तरफ मेरे गांव जैसे ही हजारों लाखों गांव अंधेरे के साये में जी रहे हैं। आज से करीब पचास साल पहले राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था- ‘पूरे देश में अंधेरा और दिल्ली में उजियाला है... जिस देश को गांवों का देश कहा जाता है, उसके गांवों की ऐसी हालत पर नेताओं की समझ पर तरस खाने को दिल करता है जिनकी हकीकत भी राष्ट्रमंडल खेलों की ग्रामीण संस्कृति की झलक दिखाने वाली झांकियों में शामिल की गयी थी। आजादी से लेकर आज तक इस देश के गांवों की हालत नहीं सुधर सकी है, किसी चीज में सुधार आया है तो सिर्फ सेंसेक्स में, अमीरों की अमीरी में और गरीबों की गरीबों में। अमीरी भी बढ़ रही है और उसी अनुपात में गरीबी भी।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं?

हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं ? इस लाइन से कुछ लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है, लेकिन मकसद ठेस पहुंचाना नहीं है। दरअसल पिछले दिनों आई एक किताब पढ़ने के बाद मन में अनायास ही ये सवाल आया कि हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं ? जिस किताब को पढ़ने के बाद ये ख्याल आया, वो है, ‘क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?’ ये किताब खास तौर से भारतीय मुसलमानों को आधार बना कर लिखी गई है। जिसमें उनकी परेशानियों का वर्णन किया गया है। इस किताब के लेखक हैं पंकज चतुर्वेदी जो पिछले उनतीस वर्षों से पत्रकारिय लेखन कर रहे हैं।
इस समय देश में मुसलमानों की छवि को लेकर एक अलग धारणा बनी हुई है। आप चाहे जहां भी बैठे हों अगर मुसलमानों की चर्चा हुई तो आपको कई बातें एक साथ सुनने को मिलेंगी। मुसलमान आतंकवादी होते हैं। कई शादियां करके ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं, वे देश में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देंगे। आम मुसलमान भारत को अपना देश नहीं मानता। कश्मीर की समस्या हिन्दू-मुस्लिम विवाद है। मुसलमान राष्ट्रगीत नहीं गाते। सरकार मुसलमानों का तुष्टिकरण करती है। इस तरह की बातें करने वालों में ज्यादा संख्या युवाओं की है, जिन्होंने मुसलमानों को सिर्फ और सिर्फ मीडिया के जरिए ही जाना है। इनकी अपनी कोई राय नहीं है, लेकिन टीवी में देखकर और अखबारों में पुलिसिया बयानबाजी की रिपोर्टें पढ़कर इन लोगों ने ये राय बना ली है।
पंकज चतुर्वेदी ने इन्हीं सब पर विस्तार से लिखा है। आतंकवाद फैलाने के लिए जो लोग मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं और यह कहते फिरते हैं कि ‘सभी मुसलमान भले आतंकवादी ना हों, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ उनके लिए लेखक ने नक्सलवादियों और ‘अभिनव भारत’ की कारगुजारियों का खाका भी खींचा है। हालांकि उन्होंने साफ किया है कि ‘‘नक्सली, उत्तर-पूर्वी राज्यों या ‘अभिनव भारत’ के कुकर्मों को सामने रखने का मंतव्य यह कतई नहीं है कि कश्मीर, लश्कर या हिजबुल को मासूम सिद्ध किया जाए। गौर करने वाली बात यह है कि जब बंदूक बारूद का मिजाज एक-सा है, और उससे बहे खून का रंग एक है तो कानून व राष्ट्रवाद की परिभाषाएं अलग-अलग क्यों हैं?’’
लेखक का यह सवाल जायज भी है। क्या मजहब अलग-अलग होने से हिन्दू और मुसलमान के जुर्म की सजा अलग-अलग हो सकती है? नहीं। लेकिन यहां सजा की बात ही नहीं है। हमारे समाज में ‘हिन्दू’ अगर कहीं आतंक फैलाता है, बम फोड़ता है तो यह आतंकवादियों को करारा जवाब है, जिसे शिवसेना जैसे कुछ क्षेत्रीय दल प्रश्रय भी देते हैं, लेकिन हकीकत में हुई आतंकवादी घटनाओं के लिए भी निर्दोष मुसलमानों को निशाना बना लिया जाता है। क्योंकि वे सॉफ्ट टारगेट होते हैं। तर्क वही, जो पहले लिखा गया है।
पंकज लिखते हैं कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर पूरे देश में चौकसी बढ़ जाती है, पुलिसवाले कई (मुसलमान) आतंकवादी पकड़ते हैं, कुछ एनकाउंटर में मारे जाते हैं, कुछ भाग जाते हैं। काफी असलाह बरामद होता है, लेकिन ये कहीं जमा नहीं होता। पकड़े गये लोग जेलों में सड़ते रहते हैं और असलहे कबाड़ में। इनका कोई रिकॉर्ड नहीं है। ये काम पुलिस अपनी कमियों को ढंकने के लिए करती है, मामले बरसों चलते रहते हैं। दसियों साल तक सुनवाई नहीं होती, लेकिन सभी चुप हैं। बोलते हैं तो सिर्फ वे जो खुद को ‘देशभक्त’ कहते हैं।
लेखक ने इस किताब के जरिए बेहतरीन आंकड़े उपलब्ध कराए हैं। जिनमें हिन्दू और मुसलमानों के बीच तुलना की गई है। चाहे आबादी की बात हो या शिक्षा की, राजनीति की हो या सरकारी नौकरियों की। बात-बात में मुसलमानों में बहु शादी प्रथा पर निशाना साधने वाले कहते हैं कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं और जल्द ही देश के बहुसंख्यकों को पीछे छोड़ देंगे। लेकिन समाजविज्ञानी कहते हैं कि अगर मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार रही तो भी उन्हें ‘हिन्दुओं’ के बराबर पहुंचने में 3,626 साल लगेंगे। फिर इस तरह का प्रचार क्यों किया जा रहा है ? जिन हिन्दुओं को बहुसंख्यक होने के नाते अल्पसंख्यकों से बड़े भाई सरीखा बर्ताव करना चाहिए, वे ही उन्हें परेशान करने में क्यों जुटे हैं ? जबकि उनके वोट पाने के लिए बड़े से बड़ा हिन्दूवादी नेता भी धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनने से नहीं हिचकिचाता। पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेकुलर बता आता है।
लेखक ने राज्यवार आंकड़े इकट्ठे किये हैं- जिनसे साफ पता चलता है कि सरकारी नौकरियों में मुसलमान कम हैं, राजनीति में भी कम है। साक्षरता के मामले में भी वे औसत ही हैं, लेकिन उम्र बढ़ने के हिसाब से अनुपात घटता जाता है और स्नातक स्तर तक पहुंचते-पहुंचते ये आंकड़ा 3 से 3.5 फीसदी के बीच रह जाता है। जबकि जेल में बंद मुस्लिम कैदियों की संख्या आनुपातिक रूप से ज्यादा है।
इस किताब को चार अध्यायों में बांटा गया है। 1.सबसे बड़ा इल्जामः बेवफाई। 2. पर्सनल लॉ। 3. ऐसी तुष्टि से तो असंतुष्टि भली। और 4. परिशिष्ट।
तीसरे अध्याय में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट की खास बातों को संक्षेप में दिया गया है जबकि परिशिष्ट में पंडित जवाहर लाल नेहरू के एक लेख का अंश और मुंशी प्रेमचंद का भाषण शामिल किया गया है।
‘क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?’ की भूमिका प्रो. विपिन चंद्रा ने लिखी है। वे लिखते हैं ‘‘यह पुस्तक देश के मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और बौद्धिक हालत का लेखा-जोखा तो प्रस्तुत करती ही है, एक ऐसी साम्प्रदायिक सोच को बेनकाब भी करती है जो कि समूचे मुसलमानों को संदिग्धता के सवालों में घेरने का प्रयास होता है। भारत का समग्र विकास तभी सम्भव है जब यहां का प्रत्येक बाशिंदा समान रूप से तरक्की करे। ऐसे में मुल्क की उस 14 फीसदी आबादी के सामाजिक-आर्थिक तरक्की को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है जो हुनरमंद है, तरक्कीपसंद है और मुल्कपरस्त है। मुसलमान या इस्लाम ना तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विपरीत हैं और ना ही उन्हें कोई विशेष लाभ या तुष्टिकरण किया जा रहा है। ऐसे ही कई तथ्यों का आंकड़ों के आधार पर किया गया आकलन साम्प्रदायिक सोच से जूझने का एक सार्थक प्रयास है।’’
किताब का नामः क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?
लेखकः पंकज चतुर्वेदी
मूल्यः रूपये 175
प्रकाशकः शिल्पायन,10295, लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा, दिल्ली 110032

सोमवार, 30 अगस्त 2010

खाऊओं का देश

सरकारी विभाग में भ्रष्टाचार (खाने कमाने) के एक से एक तरीके हैं। एक बीडीओ ने एक तालाब बनवाया, कागज पर। इसमें उसने मजदूरी और औजारों का खर्च दिखाकर दो लाख रूपये बना लिए। उसका तबादला हो गया। उसकी जगह आए नये बीडीओ ने जब लोकेशन का मुआयना किया, तो पाया कि वहां तालाब है ही नहीं, होना भी नहीं था, वो तो बना ही कागज पर था। ऐसे में नये बीडीओ के माथे पर शिकन आ गई। वो परेशान हो गया कि अगर इसकी जांच हो गई तो वो फंस सकता है। ऐसे में उसने इसका उपाय भी खोज लिया। उसने पुराने बीडीओ के तालाब को भरवाने का आदेश दे दिया। वजह बताई कि एक ही रूका हुआ पानी गंदा हो गया है। अत: इसकी जरूरत नहीं है। उसने तालाब को भरवा दिया, कागज पर। पैसे भी बन गये, इज्जत भी बच गई। ऐसा ही हाल लोहारीनाग पाला परियोजना के साथ भी हुआ है। अब तक 670 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके हैं, अब जबकि परियोजना बंद कर दी गई है, इसे समेटने में भी 800 करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान लगाया जा रहा है। बनाओ तो खाओ, हटाओ तो खाओ। खाने के लिए कुछ भी करेगा, क्योंकि ये खाऊओं का देश है। जिसे जहां मौका मिले, खाए जाओ, खाए जाओ... जनता देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकती... क्योंकि सोचने की शक्ति कुंद हो चुकी है।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

नामची से गंगटोक

पिछली पोस्ट में चार धाम का जिक्र किया था। वहां बनी शिव की प्रतिमा की तस्वीर आपके लिए है। नामची शहर से चार धाम के बीच में भारत के नामचीन फुटबॉलर बाइचुंग भूटिया के नाम पर एक स्टेडियम भी है। यहां के लोग कहते हैं कि बाइचुंग कभी इस ग्राउंड में प्रैक्टिस किया करते थे, और प्रैक्टिस करते करते वो पेज थ्री के स्टार बन गये। अब वे यहां नहीं आते। हालांकि अपने जैसे ही कुछ नौजवानों की आंखों में सपने जरूर भर गये हैं। कुछ युवा खिलाड़ी यहां फुटबॉल से उलझते दिखाई दे जाते हैं। इसके अलावा बाइचुंग के नाम पर बने स्टेडियम का इस्तेमाल दूसरे आयोजनों के लिए होता है, ठीक वैसे ही जैसे ‘चक दे इंडिया’ फिल्म में महिला हॉकी के ग्राउंड का इस्तेमाल रामलीला कमिटी वाले करते हैं। बहरहाल, चर्चा नामची की हो रही थी। चारों ओर खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा है नामची। अगर दो कमरों वाले फ्लैट में बालकनी हो और वो बाहर यानी पहाड़ की तरफ खुलती हो तो फिर कहना ही क्या? आप बालकनी में बैठकर प्रकृति को निहारते हुए बड़े ही आराम से दिन गुजार सकते हैं। कहीं जाने या किसी और मनोरंजन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। नामची गंगटोक से कोई तीन घंटे की दूरी पर है। यहां से महिंद्रा की ‘सवारी’ गाड़ी चलती है। इसमें सोलह लोगों की सीट होती है, लेकिन नामची से गंगटोक जाने वाले अपनी सीटें पहले ही रिजर्व करा लेते हैं, क्योंकि पहली और दूसरी कतार की सीटें ही आरामदायक होती हैं। पीछे की सीटों पर बैठकर तीन घंटों की पहाड़ी घुमावदार दूरी तय करने का कष्ट सफर करने वाला ही महसूस कर सकता है। अगर सही सीट मिल गई तो समझिए सफर का मजा है, नहीं तो सजा ही कहिए। चारों ओर दूर-दूर तक आंखों को लुभाने वाली खूबसूरत वादियां, दूर कहीं किसी पहाड़ी से झर-झर कर गिरती पानी की सफेद पतली सी लकीर आपका ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लेगी, और जब तक आपकी गाड़ी अगले मोड़ पर मुड़ नहीं जाए, आप उसे ही देखते रहेंगे। पूरे रास्ते तीस्ता नदी आपके साथ-साथ बहती रहेगी। कल-कल, कल-कल का मधुर संगीत आपको सुनाई देता रहेगा। थोड़ा आगे बढ़ते ही रंगित नदी भी दिखाई देगी, जो आगे जाकर तीस्ता से मिल जाती है। टेढे़-मेढे़ रास्तों पर तीन घंटे के सफर के बाद पहाड़ की उंची चोटी पर बिखरा-बिखरा सा गंगटोक उगने लगता है। शहर की झलक मिलने के साथ ही मन उमगने लगता है। उत्साह भरने लगता है।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

एक चिट्ठी कलमाड़ी ‘जी’ के नाम

आदरणीय सुरेश कलमाड़ी जी
नमस्कार
मैं एक अदना सा पत्रकार हूं। इतनी तनख्वाह मिलती है कि घर चल जाता है, लेकिन कॉमनवेल्थ की तैयारियों पर हो रहे खर्चे को लेकर लालच आ रहा है। सोचता हूं कि बहती नदिया में हाथ धुल जाता तो थोड़ा भला हो जाता। और इसके लिए आपको तहे दिल से भी शुक्रिया अदा करता, लेकिन आप तो इतने बड़े और रसूखदार हैं कि पहुंच ही आसान नहीं है। आपका फोन नंबर तो है, लेकिन अपने मोबाइल से फोन करने में डर लगता है। कल को बात उलटी ना पड़ जाए। वैसे जितने रसूखदार लोग आपके साथ खेलों की तैयारियों का खेल कर रहे हैं, उससे लगता नहीं है कि कल को कुछ उलटा होगा, और अगर हुआ भी तो आप तो संभाल ही लेंगे। आपके पास समय कम होगा, इसलिए सीधे मुद्दे पर आता हूं। दरअसल जितने किराए पर खेलों के लिए सामान जुटाया जा रहा है, उसने मुझे आकर्षित किया है। मेरे पास भी एक फ्रिज है, 165 लीटर का, जितने में आपने सौ लीटर का किराए पर लिया है, उतने पर ही मैं भी दे दूंगा। एक कंप्यूटर भी है, खेलों के दौरान डाटा एंट्री के काम आ सकता है, चाहें तो वो भी किराए पर ले सकते हैं, जो भी बनेगा दे दीजिएगा। हालांकि मैं एक लाख रूपये किराए की उम्मीद कर रहा हूं। एक टीवी भी है, जिसमें एयरटेल का कनेक्शन लगा है, आप चाहें तो खेल गांव में लग सकता है, ब्रांडेड है, यही कोई बाइस हजार का किराया दे दीजिएगा। इससे ज्यादा नहीं लूंगा। चाय बनाने के लिए गैस चूल्हा और सिलेंडर भी चाहिए तो वो भी तीस हजार तक में दे दूंगा। इसके अलावा अगर खिलाड़ियों के रोजमर्रा के इस्तेमाल के लिए सस्ते कपड़े चाहिए तो वो भी मेरे काम आ सकते हैं, सिर्फ अठाइस हजार रूपये के किराए पर दे सकता हूं। दो कमरे और एक हॉल वाला घर है, खिलाड़ियों को ठहराने के काम आ सकता है, इसके लिए मैंने चार लाख रूपये सोचे हैं, अगर जंचे तो बात कीजिएगा। जो कमीशन होगा, वो दिया जाएगा। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है, भारत सरकार भी तो कमीशन देती है खरीद फरोख्त करने में तो फिर किराए पर लेने में कमीशन क्यों नहीं बनेगा। क्योंकि इसी से तो घर चलना है। सोचिएगा, बताईगा। मेरा नंबर है 09811343224। मैं सीरियस हूं। जंचे तो फोन करें।
राजन कुमार अग्रवाल

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

चामलिंग का नामची!

जोरथांग से आगे निकलते ही लगने लगा कि सिक्किम पहुंच गये हैं। दो लेन वाली चिकनी और चौड़ी सड़क ने बता दिया था कि यहां विकास की बयार देखने को मिलेगी। सड़क के किनारे लगे सरकारी विज्ञापनों के साइन बोर्ड। जिन पर सरकारी योजनाओं की विस्तृत जानकारी थी। कुछ ही किलोमीटर के अंतराल पर लगे छोटे छोटे बोर्ड ये बता रहे थे कि आगे सरकारी स्कूल है, संभल कर जाएं। आम तौर पहाड़ांे पर गाड़ियां बीस या तीस किलोमीटर प्रतिघंटे की स्पीड से चलती हैं, लेकिन यहां औसत चालीस-पचास का था। जोरथांग से सिर्फ बीस किलोमीटर की दूरी पर है राज्य के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग का शहर नामची। हमें मुश्किल से आधा घंटा लगा वहां तक पहुंचने में, और पहुंचते ही यह समझ में आया कि क्यों पवन चामलिंग लगातार चौथी बार राज्य के मुखिया बन सके। शहर के प्रवेष द्वार पर ही सूचना विभाग का ऑफिस मानों बता रहा था कि आपको यहां किसी तरह की दिक्कत नहीं होने दी जाएगी। नामची शहर में सवारी गाड़ियों का प्रवेष प्रतिबंधित है। शहर में सिर्फ लोकल टैक्सियांे से ही सफर किया जा सकता है। लेकिन शहर से बाहर आने-जाने के लिए तीन स्टैंड हैं, जहां से दार्जिलिंग, गंेगटोक और सिलीगुड़ी के लिए आसानी से सवारी गाड़ी मिल जाती है। अच्छा लगा। दिल्ली में जहां ऑटो वाले किराया बढ़ाने के बावजूद आज भी मनमानी करते हैं, वहीं पूरे सिक्किम में सवारी के लिए सिर्फ टैक्सियां ही दिखाई पड़ती हैं, जिनका रेट फिक्स है और गरीब से गरीब आदमी भी इनका ही इस्तेमाल करता है। यहां के लोगों के चेहरे पर संतोष का भाव दिखता है, जितनी कमाई हुई, वो पेट भरने के लिए काफी है, इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। आमतौर पर हर राज्य का मुख्यमंत्री अपने गृह नगर को लेकर चौकस रहता है। मनपसंद अधिकारियों की तैनाती से लेकर हर मामले में, लेकिन पवन चामलिंग का ये प्रेम शहर के चौक चौराहों पर दिखाई देता है। नामची के सेंट्रल मार्केट में आधुनिक पार्क, पार्क में बड़ा सा इक्वेरियम, संगीतमयी रंगीन फव्वारा, पूरा फर्श ग्रेनाइट पत्थर से सुसज्जित। मार्केट में किसी भी गाड़ी को आने की इजाजत नहीं है। वन वे ट्रैफिक सिस्टम है। कहीं कोई जाम नहीं। ना ही चिल्लपों। गाड़ियों के हॉर्न की आवाज नहीं सुनाई देती। मानों लोगों ने खुद ही प्रतिबंध लगा रखा हो। सुकुन मिलता है देखकर कि चंडीगढ़ के बाद दूसरा शहर भी है जिसकी यातायात व्यवस्था इतनी अच्छी है। सिक्किम की पूरी अर्थव्यवस्था केंद्र सरकार की मदद, पर्यटन और शराब व्यवसाय पर टिकी है। पर्यटन के बाद शराब उद्योग ही प्रदेश में सबसे बड़ा व्यवसाय है। राजधानी गेंगटोक से लेकर मुख्यमंत्री के होम टाउन तक। हर दूसरी दुकान शराब की है जहां बैठकर पीने-पिलाने की व्यवस्था भी है। राज्य का प्रमुख उद्योग होने की वजह से यहां शराब सस्ती भी है। राजधानी दिल्ली के सरकारी ठेकों की तरह कहीं भीड़ नहीं उमड़ती। लोग शराब खरीदने के लिए मारा-मारी करते नहीं दिखाई देते। नामची के ठेकों में सुबह खुलने के बाद से ही चहल-पहल शुरू हो जाती है। जो देर रात बंद होने के बाद ही खत्म होती है। यहां शराब खुलकर बिकती है, लेकिन सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पीने पर जुर्माना देना पड़ता है। पीने वालों के साथ साथ बेचने वाले को भी। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है। देश की राजधानी में भले ही इसका पालन नहीं होता हो, लेकिन यहां ये कानून सख्तीस से लागू है। हालांकि लोगों ने इसका हल तलाश लिया है, वे बाजार से दूर जाकर अकेले में धूम्रपान करने लगे हैं। नामची शहर पहाड़ों के बीच बसा है। पूरे साल यहां पर्यटन का मजा लिया जा सकता है। यहां आप घर की बालकनी से भी प्राकृतिक सौंदर्य का रस ले सकते हैं। हल्की बारिश के और यहां पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए एक धार्मिक स्थल ‘चार धाम’ का विकास किया जा रहा है, जिसमें चारों धाम के दर्शन एक साथ किए जा सकेंगे। बैठी हुई मुद्रा में भगवान शिव की सैकड़ों फुट उंची प्रतिमा यहां का मुख्य आकर्षण है। अभी निर्माण कार्य चल रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि निर्माण के बाद दार्जीलिंग और गेंगटोक की तरह ही नामची अपने नाम से जाना जाएगा। मुख्यमंत्री पवन चामलिंग के नाम से नहीं। ‘चार धाम’ बनने के बाद एक बार नामची जरूर जाइएगा।

बुधवार, 23 जून 2010

क्या हमें भी डरना चाहिए?

हरियाणा में प्रेम विवाह करने वालों के बुरे अंजाम की खूब खबरें चलायी हमने। कभी सगोत्र विवाह करने वाले प्रेमी युगलों की हत्या की खबरें तो कभी एक ही गांव में शादी करने के बाद हुए विवाद की खबरें। खाप पंचायतों के भाईचारे में पिसते प्रेमी प्रेमिकाओं की खबरें। इश्क को सब कुछ मान लेने वालों के टूटते ख्वाबों की खबरें। हमारे लिए वो सिर्फ खबरें थीं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। ना तो उनमें भावनाएं जुड़ती थीं, और ना ही कोई हमदर्दी पैदा होती थी, क्योंकि खाप पंचायतों के शिकार हुए लोगों में से कोई भी अपना नहीं था। ना ही भौगोलिक एकता थी, यहां भारतीय होने के नाते आने वाली एकजुटता गायब हो चुकी थी, क्योंकि मामला दूसरे राज्यों का था। हालांकि दिल्ली के पड़ोस का था, लेकिन इमोशनल अटैचमेंट नहीं हो पाया था। पंजाब के जालंधर में बिहारी दंपत्ति की ऑनर किलिंग ने हल्की सी जुंबिश पैदा की थी क्योंकि मैं भी बिहार की पैदाइश हूं। लेकिन ऑनर किलिंग का दायरा बढ़ने लगा। राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। पहले स्वरूप नगर में प्रेमी प्रेमिका को करंट लगाकर मार दिया गया। जैसाकि दूसरे मामलों में होता है- लड़की के पिता और चाचा ने ही इस घिनौनी करतूत को अंजाम दिया। अशोक विहार में हुई दूसरी वारदात में चार साल पहले अंतरजातीय विवाह करने वाली मोनिका और उसके पति की हत्या कर दी गई। दो दिन बाद ही यहां से मोनिका की कजन की लाश भी मिली, आरोप लगा इनके भाईयों पर। पुलिस इनकी तीसरी बहन के संपर्क में है। उसने भी प्रेम विवाह किया है। वो खतरे में है। हत्या के आरोपी भाई फरार हैं। क्या ऐसे और भी भाई हैं, जो राखी बंधवा कर अपनी बहन की रक्षा करने की कसमें खाने के बाद भी उनके ही खून से अपने हाथ रंगने को तैयार बैठे हैं। दिल्ली में इस तरह की वारदातों के बाद अब हम प्रेम विवाह करने वालों को डर लगने लगा है...

गुरुवार, 6 मई 2010

एकता में बल है।

एकता में बल है। बचपन से सुनते आ रहे हैं। मास्टर साब मुट्ठी बनाकर बताते भी थे कि उंगलियों से कुछ नहीं होता, लेकिन जब मुक्का बनता है तो ताकत आती है। तब केवल थप्पड़ और मुक्के का फर्क समझ में आता था, कभी पिटने में कभी पीटने में। जब कॉलेज पहुंचे तब छात्रों की एकता देखता रहता था। कक्षा में ब्रााहृण और सवर्ण छात्रों की एकता थी आगे बैठने के लिए, खेल के मैदान में बाबू साहब कहे जाने वाले छात्रों की एकता देखता था पिछड़ों और दलितों को बाहर रखने के लिए। हॉस्टल में इन सबकी एकता देखने को मिलती थी जब कोई लड़की हॉस्टल के बाहर की सड़क से गुजरती थी। ऐसे ही नहीं कहा गया कि एकता में शक्ति है। वाकई है। हाल ही में कुछ दिनों के लिए महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष एकजुट दिखाई दिया। हकीकत में था नहीं, सिर्फ दिखाई दिया। दिखना भी जरूरी है, सरकार पर दबाव बनता है। महंगाई पर एकजुट लोग उस तरह से एकजुट नहीं दिखे हमारे नेता जैसे खुद की सैलरी बढ़ाए जाने के प्रस्ताव पर होते हैं। आखिर एकता में बल है, मानना पड़ता है। सरकार गिराने के लिए विपक्ष एकजुट होता दिखाई देता है, लेकिन सरकार बचाने के लिए या कहिए येन केन प्रकारेण खुद को बचाने के लिए धुर विरोधी नेता भी एकजुट दिखने लगते हैं। नहीं तो आप ही बताएं कि उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी रहने वाले मायावती और मुलायम सिंह कट मोशन पर सरकार का साथ कैसे देते?एकता का ताजातरीन उदाहरण खेलसंघों के शीर्ष पदों पर बैठे क्षत्रपों का है। कांग्रेस सांसद सुरेश कलमाड़ी, बीजेपी के वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा, एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल जिनका नाम आईपीएल विवाद में भी कथित रूप से आ चुका है, एकसाथ दिखाई दिए। खेल मंत्रालय के फैसले के बाद अपनी मलाईदार सीट बचाए रखने के लिए इन लोगों ने प्रधानमंत्री से सामूहिक मुलाकात की। और बाहर निकलकर बताया कि प्रधानमंत्री ने मौजूदा कार्यकाल तक बने रहने का आ·ाासन दिया है। लेकिन यकीन मानिए, प्रधानमंत्री के सामने ये लोग गिड़गिड़ाए भी होंगे। घड़ियाली आंसू बहाए होंगे। बहुत मेहनत और पसीना बहाने के रोने रोए होंगे। ताकि इन्हें कुछ मोहलत मिल जाए और ये जितना बटोर सकते हैं बटोर लें। इन नेताओं की एकजुटता पर गौर करने की जरूरत है। ये कभी महंगाई के मुद्दे पर इस तरह एकजुट नहीं होते। ये कभी गरीबों की मदद के लिए एकजुट नहीं होते। बाढ़-सुखाड़ जैसी प्राकृतिक आपदा के समय एकजुट नहीं होते। भूखमरी और पानी की समस्या के खिलाफ एकजुट क्यों होते? सवाल चाहे जितने हों, लेकिन बात सिर्फ इतनी ही है कि जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक चाहे समस्याओं का अंबार लगा हो, हमारे नेता एकजुट नहीं होते। ये तभी एकजुट होते हैं जब इनको सीधा फायदा हो रहा हो, या इनके फायदे को नुकसान पहुंच रहा हो। जैसे सांसदों की वेतन वृद्धि के पक्ष में ये सभी एकजुट होते हैं। सांसदों को मिलने वाली सुविधाओं के लिए एकजुट होते हैं। दिल्ली में नये बने खेल गांव में बन रहे करोड़ों के फ्लैटों के आवंटन के लिए भी दिल्ली के सभी सत्तर विधायक एकजुट हैं। और अब खेल महासंघों पर मंत्रालय के डंडे के डर से सभी एकजुट हैं।

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

पीएम बोलते रहे, सीएम सोते रहे

दिल्ली के विज्ञान भवन में आतंरिक सुरक्षा के मुद्दे पर देश भर के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन चल रहा था। पीएम बोल रहे थे, नक्सलवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या बता रहे थे, घुसपैठ रोकने का उपाय बता रहे थे, लेकिन सीएम साहब सो रहे थे! जी हां, ये हैं केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्यूतानंदन। आंतरिक सुरक्षा पर हो रही बैठक में शिरकत करने खास तौर से दिल्ली पहुंचे थे। लेकिन केरल से दिल्ली आने में ही ये इतना थक गए कि पीएम के भाषण के दौरान इन्हें नींद आ गई। ऐसे में कैसे होगी आंतरिक सुरक्षा पर बहस? पीएम देश के मुख्यमंत्रियों से गुजारिश कर रहे थे कि आंतरिक सुरक्षा मजबूत करने में राज्य केंद्र सरकार का साथ दें। क्या अच्यूतानंदन ऐसा साथ देंगे? जब राज्य का मुखिया ही सो जाएगा तो नौकरशाहों को कौन जगाएगा? पीएम बोलते रहे, सीएम साहब सोते रहे। वो भी तब जब पीएम साहब नक्सल को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे थे, तभी नक्सल प्रभावित राज्य केरल के सीएम साहब को नींद आ गई। कैसे मिटाएंगे नक्सल समस्या, कैसे पाएंगे माओवादियों से निजात? बड़ा सवाल है, उससे भी बड़ी है जिम्मेदारी, जो अच्यूतानंदन कैसे निभा रहे हैं, ये बताने की जरूरत नहीं।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

राहुल का मुंबई आना

पांच फरवरी को राहुल गांधी का मुंबई दौरा कई मायनों में याद रखा जाने लायक है। राहुल गांधी के इस संक्षिप्त दौरे के दौरान मीडिया को राहुल से दूर रखा गया। किसी तरह की कोई बातचीत नहीं। राहुल के दौरे से मीडिया को जितना ही दूर रखा गया, मीडिया उतनी ही उनके पास आने की कोशिश में लगा रहा। खासतौर से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया। टीवी चैनलों के पत्रकार राहुल की एक बाइट के लिए परेशान थे तो उनके सहयोगी कैमरामेन राहुल को अपने कैमरे में कैद करने के लिए। राहुल ने करीब चार घंटे के दौरे में कहीं कोई बयान नहीं दिया, सिर्फ पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में बदलाव किया, और जहां नहीं जाना था, वहां भी पहुंच गए। समाचार चैनलों के पास संयोग से दिखाने को कोई और खबर थी नहीं, सो सुबह से ही लग गए, राहुल गांधी थोड़ी ही देर में मुंबई पहुंचने वाले हैं। उनके स्वागत की तैयारियां कैसी हैं। ठाकरे परिवार की प्रतिक्रिया क्या है। क्या क्या कार्यक्रम होने वाले हैं। बस दिल्ली स्टुडियो में बैठे एंकर अपने संवाददाताओं का सिर खा रहे थे, और वे भी रट्टू तोते की तरह ही अपने जवाब लगातार दोहराए जा रहे थे। बस थोड़ी ही देर में राहुल गांधी मुंबई पहुंचने वाले हैं। ये खबर चलते चलते अचानक ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चली, राहुल गांधी मुंबई पहुंचे। उसके बाद एक एक करके सभी समाचार चैनलों और उनके रट्टू संवाददाताओं के पास एक ही खबर थी, राहुल गांधी मुंबई एयरपोर्ट पर पहुंच चुके हैं। यहां से वे विले पार्ले जाएंगे। हैलिकाॅप्टर से जाएंगे। भाईदास सभागार में युवाओं को संबोधित करेंगे। सभी चैनलों पर यही एक मात्र समाचार। राहुल हैलिकाॅप्टर से रवाना हो गए। उनका काफिला भाईदास सभागार पहुंचा। यहां वे युवाओं से बातचीत करेंगे। राहुल आए, युवाओं से बातचीत की, और मीडिया से मिले बिना अगले सफर पर निकल गए। युवाओं से क्या बातचीत की, ये किसी को पता नहीं चला। मीडिया को भी तत्काल इसकी जरूरत नहीं थी, वे बस यही बताने में सकून पाते रहे कि राहुल घाटकोपर के लिए रवाना हो गए। राहुल थे कि ना तो मीडियावालों को ही पकड़ने का मौका दे रहे थे, और ना ही शिवसैनिकों को। राहुल की खोज खबर में टिड्डी दल की भांति मंडराते मीडिया को अचानक खबर मिली कि राहुल ने अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रम में बदलाव कर दिया है। विले पार्ले से घाटकोपर जाने के लिए राहुल गांधी हैलिकाॅप्टर की बजाए सड़क मार्ग का इस्तेमाल करने वाले हैं, बस अब उनके पास यही खबर थी। राहुल शिवसेना को मुंह चिढ़ाते हुए सड़क मार्ग से घाटकोपर जा रहे हैं। इसी बीच टीवी वालों ने कुछ कैमरे रास्ते में राहुल की गाड़ियों की तस्वीरों के लिए तैनात कर दिये थे। हवा में तो उनका पीछा मुश्किल था, लेकिन सड़क पर वे राहुल के पीछे लग गए। राहुल आगे-आगे, टीवी वाले पीछे-पीछे। राहुल ने एक जगह गाड़ी रोकी और लोगों का हाल लिया। अगली खबर यही थी, राहुल रुके। बीच रास्ते में रुके राहुल बाबा। लोगों से मिल रहे हैं राहुल बाबा। एक, दो, तीन, चार सभी बड़े राष्ट्रीय खबरिया चैनलों पर चलती रही खबर- रास्ते में रुककर राहुल गांधी ने लोगों से हाथ मिलाया। उनका हालचाल पूछा। किसी ने नहीं बताया कि लोगों ने राहुल से अपना कौन सा दर्द बयां किया? महंगाई का, बेरोजगारी का या भ्रष्टाचार का? सब बताते रहे, राहुल पहुंच रहे हैं, राहुल चले गए हैं। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण डेढ़ घंटे से उनका इंतजार कर रहे हैं। अचानक टीवी स्क्रीन पर खबर चमकी, राहुल मुंबई लोकल में सवार हुए। बस, अब यही खबर बन गई। राहुल लाइन में खड़े हुए, खुद टिकट खरीदी। अपने सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों के लिए भी टिकट खरीदी। राहुल ने खुद टिकट खरीदी पर ज्यादा जोर था। क्यों खरीदी, क्यों सवार हुए लोकल में इसका कोई जवाब नहीं था। वे लोकल ट्रेन में सवार हुए, खबरनवीसों के लिए ये काफी था। कुछ को राहुल के लोकल ट्रेन में सफर करते हुए फुटेज मिल गए तो कुछ ने सौजन्य से उधार मांग लिये। जिनको उधार मांगने में शर्म आई, उनने चुराकर, क्राॅप करके काम चला लिया। आजकल ये आम है, इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं। राहुल गांधी लोकल में। एक के बाद दूसरा, फिर तीसरे समाचार चैनल पर यही था-राहुल गांधी मुंबई की लाइफ लाइन कहे जाने वाली लोकल में, लोकल में सवार हुए राहुल गांधी। क्यों सवार हुए भैया? क्या काफिले की गाड़ी का तेल खत्म हो गया था या मीडिया को दूर रखते हुए पास बुलाना था। या मंुबई वालों की तकलीफ दिल्ली में मम्मी सोनिया तक तत्काल पहुंचानी थी कि मुंबईकरों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। वजह चाहे जो हो, राहुल ने लोकल में सफर किया। राहुल ने शायद पहली बार ही किया होगा लोकल का सफर और शायद आखिरी बार भी। बहरहाल।राहुल चलते रहे। मीडियाकर्मी पीछा करते रहे। और थ्री ईडियट्स कांग्रेस के युवराज का जलवा देखते रहे। थ्री ईडियट्स... नहीं समझे। अपने ठाकरे साहब और उनका परिवार। बिल्कुल बिल में छुपे चूहे की मानिंद। काफी इंतजार के बाद राहुल बाबा ने मुख्यमंत्री को भी दर्शन दिए। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कृतार्थ हुए। उन्होंने कांग्रेस महासचिव की जमकर आवभगत की। उनकी ओर से आवभगत तोएयरपोर्ट से ही शुरू हो गई थी। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके लिए ये पहला मौका था, अपने घर में सोनिया पुत्र के स्वागत का। उन्होंने पूरा अमला झोंक दिया था। कहीं कोई कमी नहीं। मीडिया को यहां भी दूर ही रखा गया! थोड़ी देर इस पर खबरें प्रसारित होती रहीं। राहुल सीएम के साथ। राहुल सीएम के साथ। फिर खबर आई, राहुल रवाना हो गए। राहुल पांडिचेरी के लिए रवाना हो गए। वहां भी उनका एक कार्यक्रम तय था। राहुल चले गए। मीडिया पीछे छूट गया। ये बताता रहा कि राहुल चले गए। सुबह ग्यारह बजे आए थे, तीन बजे चले गए। चार घंटों में सबको नचा गए। महाराष्ट्र सरकार का पूरा अमला उनकी तीमारदारी में लगा रहा, युवराज को कोई दिक्कत न हो, इसकी कोशिश में जुटा रहा। कोई दिक्कत नहीं आई, युवराज सकुशल लौट गए। ठाकरे परिवार को ठेंगा दिखाकर चले गए। शिवसैनिक कुछ न कर सके। एकाध जगह प्रदर्शन के अलावा सब शांतिपूर्ण रहा। मीडियाकर्मियों को भी राहुल के पीछे भागने से राहत मिल गई। लेकिन अब उनकी दिक्कत और बढ़नी थी, राहुल तो चले गए, अब उन पर अलग अलग एंगल से कई स्टोरी फाइल करनी होगी। पत्रकार बिरादरी परेशान होने लगी। पहले तो ये बताते रहे कि राहुल गांधी यहां पहुंचे। यहां ये तैयारी है। यहां ये प्रोग्राम है। राहुल यहां से वहां जाएंगे। वहां फलां से मिलेंगे। वहां फलां कार्यक्रम रखा गया है। उसमें, अलां, फलां और चिलां भी शामिल होंगे। सब हो गया। अब स्टोरी एडिट करानी है। आखिर ये सब बताने के पीछे समाचार चैनलों का मकसद क्या था। क्या वे किसी अनहोनी का इंतजार कर रहे थे, जो लगातार लाइव दिखा रहे थे राहुल का मुुंबई दौरा। या राहुल का मुंबई दौरा प्रायोजित था? मालूम नहीं सच क्या है। लेकिन इतना तो आपने भी देखा ना कि राहुल सिर्फ चार घंटों के लिए मुंबई आए। इन चार घंटों में देश की आर्थिक राजधानी में खूब उथलपुथल मचाई। शिवेसना और मनसे को ठेंगा दिखाया और जनता की ओर हाथ हिलाकर उसी हैलिकाॅप्टर से एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए जिससे आए थे।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

औरों के भी दिन बहुरैं...

ट्रेन के जनरल डब्बों में या लोकल ट्रेन में सफर करने वालों को ही मालूम होता कि कितनी मुश्किल से जगह मिल पाती है। एक बार जगह बन जाए तो थोड़ी राहत मिलती है, लेकिन चिंता फिर भी नहीं मिटती। अपनी जगह बनने के बाद लोग अगले स्टेशन पर सवार होने वालों को जगह देने से कतराते हैं। क्योंकि उन्हें बैठने में दिक्कत होने लगेगी। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता नये यात्री भी जगह बना ही लेते हैं। फिर विरोध करने वाले भी विरोध छोड़कर उन्हें अपना लेते हैं। ये बात हर जगह लागू होती है। आम लोगों पर भी और राजनेताओं पर भी। कुछ ऐसा ही हो रहा है महाराष्ट्र में। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे भी महाराष्ट्र में नहीं जन्मे थे, मध्य प्रदेश से आए थे। लेकिन अब उन्हें मराठियों और महाराष्ट्र की चिंता खाए जा रही है। वे मराठियों की अस्मिता की रक्षा में लगे हैं। वैसे ही जैसे रेल यात्री दूसरों के सामान की रक्षा का ठेका लेते हैं। उन्हें मराठियों की चिंता है, लेकिन उनका अपना ही भतीजा घर तोड़कर चला गया है, उसकी उन्हें चिंता नहीं है। दरअसल वे दूसरे नेताओं की तरह ही ठाकरे बंधु भी मराठी के गर्म तवे पर पकाई हुई रोटी ही खा रहे हैं। इसलिए बाहर से आए नेताओं से इन्हें दिक्कत होने लगती है। इसलिए वे ऐसा दिखाते हैं कि मामला उत्तर भारतीय बनाम मराठी है। लोगों को भी लगता है कि ठाकरे किसी और को महाराष्ट्र में कमाने खाने नहीं देंगे। लेकिन ऐसा नहीं है, मामला शुद्ध रूप सिर्फ राजनीति का है। चाचा-भतीजा मिलकर राजनीति कर रहे हैं। कभी साथ मिलकर मराठी हितों की बात करते थे, अब अलग अलग मराठी हित के नाम पर अपने अपने हित साधने में लगे हैं। हम तो बस यही कह सकते हैं कि जैसे इनके दिन बहुरै, वैसे ही औरों के भी बहुरैं।

शनिवार, 16 जनवरी 2010

पढ़ना लिखना सीखो, लेकिन किससे ?

पढ़ना लिखना सीखो, मेहनत करने वालों, गाय चराने वालों, बोझा ढोने वालों। पढ़ना लिखना सीखो, चूहा मारने वालों, भेड़ चराने वालों, गाय चराने वालों। उन्नीस सौ नब्बे-इक्यानवे में ये नारा दिया था स्वनामधन्य, गरीबों के मसीहा लालू प्रसाद यादव ने। लेकिन ऐसा लगता है कि उनकी बात कुछ लोगों ने मानी, ज्यादातर लोगों ने नहीं मानी। तब बिहार में उन्होंने चरवाहा विद्यालय भी बनवाए। करीब बीस साल होने को आए, लेकिन मजदूरी करनेवाले, बोझा ढोने वाले, गाय, भेड़ चराने वालों ने पढ़ना लिखना नहीं सीखा। और ना ही उनकी ऐसी कोई मंशा है। ऐसा लगता है कि उनकी समझ में पढ़ने लिखने से पेट भरने वाला तो है नहीं। फिर काहे के लिए पढ़ने लिखने में समय खराब किया जाए। लेकिन कुछ लोगों ने उनकी बात मान भी ली। और अपने बच्चों को पढ़ने लिखने के लिए भेज दिया। लेकिन उनकी हालत ज्यादा अच्छी है नहीं। एक रिपोर्ट आई है। जिसमें कहा गया है कि ग्रामीण इलाके के स्कूलों में पांचवीं में पढ़ने वाले बच्चे दूसरी क्लास की किताबें भी नहीं पढ़ पाते। इसके लिए इन स्कूलों के मास्टर साहब भी उतने ही जिम्मेदार हैं। मानव संसाधन मंत्री कहते रहें कि शिक्षा तंत्र में बदलाव किया जाएगा, लेकिन फायदा क्या है? जिन ग्रामीण इलाकों में ये हाल है, वहां अब नवाब बनने की परिभाषा बदल गई है। पहले कहते थे- पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे, होगे खराब। लेकिन खिलाड़ियों की सफलता के बाद ये परिभाषा बदल गई है। अब कहते हैं- खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब, पढ़ोगे लिखोगे होगे खराब। तो अब बच्चों ने दूसरी परिभाषा पर अमल करना शुरू कर दिया है। उन्हें लगने लगा है कि पढ़ने लिखने से क्या होगा? सब खुद को सचिन बने ही देखना चाहते हैं। लालू जी, कपिल जी लगाते रहें नारे, करते रहें शिक्षा तंत्र में बदलाव। उनके लिए तो पढ़ना लिखना समय की बर्बादी है। और कोई भी अपना समय बर्बाद करना नहीं चाहता। फिर चाहे मजदूरी करनी पड़े, बोझा ढोना पड़े, गाय चरानी पड़े। चलो अच्छा भी है, बिहार में चुनाव आने वाले हैं, लालू जी इसी बहाने एक बार फिर अपना बीस साल पुराना राग दोहरा सकते हैं। पढ़ना लिखना सीखो, मेहनत करने वालों, गाय चराने वालों, बोझा ढोने वालों। पढ़ना लिखना सीखो, चूहा मारने वालों, भेड़ चराने वालों, गाय चराने वालों.........

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

आसमान में जमीन

अब जमीन के भाव आसमान पर पहुंच गए हैं। लोगों के पास खूब पैसा आ रहा है, इसलिए वे जमीन में पैसे लगा रहे हैं। जिससे जमीन और महंगी होती जा रही है। दिल्ली में भी जमीन की दिक्कत है। इसलिए लोगों ने ग्राउंड फ्लोर के उपर वाली मंजिलों के छज्जे बाहर गली में बना दिए हैं। कुछ ने तो पूरा कमरा ही निकाल लिया है। जमीन की किल्लत है, करें क्या? हवा में ही अतिक्रमण कर रहे हैं। जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है। तो अतिक्रमण में क्या बुराई है?

इन दिनों जमीन काफी अहम हो गई है। हर कोई ज्यादा से ज्यादा जमीन की जुगत में लगा है। मजूर, किसान, शिक्षक, उद्योगपति, खिलाड़ी, कलाकार हर कोई पूरी कोशिश कर रहा है कि उसे यहां, वहां या जहां भी थोड़ी जमीन मिल जाए। लेकिन कामयाबी किसी किसी को ही मिलती है। जमीन पाने की कोशिश में लगे किसानों के जमीन गंवाने की ही कहानियां सुनाई देती हैं। वहीं बाॅलीवुड कलाकारों के किसान बनने के किस्से भी चर्चेआम रहे। अमिताभ बच्चन, आमिर खान, रानी मुखर्जी और भी कितने नाम हैं। डाॅक्टर, इंजीनियर और वकील सभी जमीन के जुगाड़ में हैं। औरों की तो छोड़िए, अब तो सेना के बड़े अधिकारी भी जमीन के पीछे भागते दिखाई देने लगे हैं। बड़े, बड़े उससे भी बड़े अधिकारी जमीन चाहते हैं। पता नहीं, अपने लिए चाहते हैं या देश के लिए चाहते हैं। चीन एक एक इंच करके भारत की जमीन हड़प रहा है, उसे नहीं रोक रहे हैं। थोड़ा थोड़ा करके वो हमारे ही देश में घुसा चला आ रहा है, लेकिन लोग सिलीगुड़ी की जमीन में ही उलझे हैं। सीमा से बहुत दूर, इसलिए लगता है कि ये लोग जमीन अपने लिए ही चाहते होंगे।

एक मित्र के दादा जी ने बताया कि उन्नीस सौ छियासी में दिल्ली आए थे तो कुतुबमीनार के पास सिर्फ जंगल होता था, गुड़गांव में भी बसावट नहीं थी। मित्र ने छूटते ही कहा - तभी कुछ जमीन खरीद ली होती तो वे भी आज करोड़पति होते। लेकिन उसने अपने दादा जी की गलती से सीख ले ली है। वो समझदारी दिखा रहा है। उसने अभी से ही चांद पर जमीन खरीद ली है, ताकि कल को अगर चांद पर काॅलोनी बने, तो उसके बच्चे पोते उसे न कोसें। उन्हें पृथ्वी जैसा गरीबी भरा जीवन वहां न जीना पड़े। चांद पर ये जमीन खरीदने के लिए उसे अपने परिवार का पेट काटना पड़ा तो क्या हुआ? बच्चों का ट्यूशन छुड़ाना पड़ा तो क्या हुआ? जमीन भी तो बच्चों के लिए खरीदी है ना!