कई बार कुछ बातें सिर्फ़ कहने के लिए कही जाती है,जिनका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन कई बार कुछ बातों का नही होते हुए भी मतलब होता है।
सोमवार, 28 सितंबर 2009
चार पन्नों का प्रमाणपत्र
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
एक था समाजवादी!
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
कम करो खर्चे!
इन दिनों केंद्र सरकार का परिवार गरीबी से जूझ रहा है। देश में गरीबी छा रही है। कहिए, कि गरीबी आ रही है। तभी तो परिवार के वरिष्ठ सदस्य और उनसे जरा से कनिष्ठ सदस्यों ने फाइव स्टार होटल छोड़कर राज्य के भवन में निवास बनाने की पहल की, या अपने दूसरे स्तर से खर्च कम करने का प्रयास किया। दरअसल पूरे कुनबे का खर्चा झेल रहे प्रणब मुखर्जी को लगने लगा था कि परिवार का खर्चा अनावश्यक रूप से बढ़ गया है। जिससे परिवार को बुरा दिन देखने को मिल सकता है, ऐसे में उन्होंने वरिष्ठ सदस्य को सीधे तो कुछ नहीं कहा, मीडिया में सीधे ही कह दिया कि परिवार के खर्चे कम करने के लिए बुजुर्ग और जिम्मेदार सदस्यों को अपने "शाह'खर्ची कम करनी चाहिए। साथ ही जो परिवार के जो युवा भी फिजुलखर्ची कर रहे हैं, उन्हें भी अपने खर्च कम करने चाहिए। आखिर परिवार का खर्च चलाना कोई आसान काम तो है नहीं, उस हिसाब से कमाई हो नहीं रही थी, हालांकि परिवार में फांके की नौबत नहीं आई है, लेकिन आमद और खर्च का हिसाब देखने वाले को तो भविष्य के बारे में सोचकर ही जेब ढीली करनी होती है। तो क्या बुरा है यदि परिवार का वित्तीय हिसाब रख रहे प्रणब मुखर्जी ने ये सलाह दे दी। अब जब खर्च कम करने की बात थी तो "किचन संभाल रही' परिवार की मुखिया भी कैसे पीछे रहती? उन्होंने भी अपने खर्च में कटौती का ऐलान कर दिया। और हवाई जहाज में गरीबों की तरह इकोनोमी क्लास में सफर किया। अपने सुरक्षाकर्मियों की संख्या में भी कटौती कर दी। और जब परिवार की मुखिया ने ये कदम उठाया तो उनके बेटे भी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी हवाई जहाज छोड़ कर रेलगाड़ी पकड़ी और छुक-छुक करते हुए लुधियाना पहुंच गए। आखिर परिवार का खर्चा संभालने वाले प्रणब दा ने कहा था सो बात सबको माननी ही थी।
चलते चलते
विपक्षी आरोप लगाते हैं कि देश सूखे, गरीबी और महंगाई से जूझ रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लेकिन कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। चहुंओर शांति ही शांति है। बस चीनी पैंतीस रूपए किलो हो गई है। सबसे सस्ता चावल भी बीस रूपए के पार है। खुला आटा पंद्रह रुपए किलो है। अगर नमक बढ़िया चाहिए तो एक किलो के लिए सत्रह रुपए का भुगतान करना होगा। तो जहां लोग हजारों रुपए महीना कमा रहे हों, वहां कहां है महंगाई। लेकिन हर आदमी हजारों रूपए महीना नहीं कमा रहा, आम आदमी दाने दाने को मोहताज है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी मंदी के संकट से जूझ रहा है। ऐसे में केंद्र 'सरकार' परिवार को इसका सामना करना पड़ रहा है तो अजूबा क्या है?