सोमवार, 28 सितंबर 2009

चार पन्नों का प्रमाणपत्र

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर और प्रमाण पत्र के प्रारूप में बदलाव करके चाहे कुछ किया हो या न किया हो, स्कूल में आंतरिक ग्रेड देने वाले शिक्षकों को शोषण का अधिकार जरूर दे दिया है। दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में ग्रेडिंग सिस्टम लागू होने के बाद अब दसवीं का जो प्रमाण पत्र बनेगा, उसमें नौंवी कक्षा का भी रिजल्ट शामिल होगा। पहले आपके हाथ में सिर्फ एक पन्ने का सर्टिफिकेट होता था, लेकिन अब वो चार पन्नों का होगा। पहले पेज पर छात्रों के माता पिता का नाम होगा, फोटो और स्कूल की दूसरी जानकारियां होंगी, और यह भी छपा होगा कि छात्र का लक्ष्य क्या है, उसकी रूचि किन क्षेत्रों में है और उसके पसंदीदा खेल कौन से हैं। दूसरे पन्ने पर नौंवी और दसवीं के छात्रों का शैक्षणिक रिकॉर्ड होगा। और पढ़ाई के साथ साथ, कला और शारीरिक शिक्षा के ग्रेड होंगे। तीसरे पन्ने पर बच्चे का जीवन कौशल, मास्टर और साथ में पढ़ने वाले बच्चों से उसका व्यवहार कैसा है, स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों और नैतिक मूल्य कैसे हैं, इसकी जानकारी होगी जो पूरी तरह से स्कूल के मास्टर ही तय करेंगे। और चौथे पन्ने पर स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा में बच्चे के प्रदर्शन के साथ साथ उसकी सेहत की जानकारी होगी। स्कूल में होने वाले स्पोट्र्स कंपीटिशन, एनसीसी और एनएसएस, गाइडिंग, स्विमिंग, जिमनास्टिक, योग और गार्डनिंग में से किन्हीं दो में बच्चे का प्रदर्शन कैसा है, इसकी आंकड़ा स्कूल को देना होगा। बस यही पेंच है इस ग्रेडिंग सिस्टम का। हालांकि इन क्षेत्रों में ये ग्रेड पहले भी चापलूसी और चमचागिरी के आधार पर ही मिलते रहे हैं, लेकिन अब छात्रों की समस्या कम नहीं होगी, बल्कि बढ़ जाएगी। खेल के नंबर देने वाले पीटी सर (पीईटी) बच्चों से अपने घर का काम और जोर शोर से करवाएंगे। शहरों का तो मालूम नहीं, लेकिन गांव और कस्बों में ऐसा ही होता है। चौथे पन्ने पर जिन क्षेत्रों की ग्रेडिंग होनी है, उसका आकलन स्कूल के मास्टर ही करते हैं, और अब वे ज्यादा खुलकर कर पाएंगे। क्योंकि अब उनका दायरा बढ़ गया है। जो चीजें पहले खेल के मैदान में होतीं थीं, अब वे कई जगहों पर दिखाई देंगी। बच्चों को कई परीक्षाएं देनी होंगी। सिर्फ पढ़ाई से काम नहीं चलने वाला, मास्टरों के घर का काम भी करना होगा, जिससे वे खुश रहें और दसवीं की चार पन्नों के प्रमाण पत्र में ज्यादा से ज्यादा और अच्छे से अच्छे ग्रेड शामिल करवा सकें।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

एक था समाजवादी!

मित्रों, जानकर दुख होगा कि मेरे एक साथी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। वो करीब पैंतीस वर्ष का है, और उड़ीसा के बरगढ़ जिले का निवासी है। आप सोचेंगे कि सिर्फ पैंतीस साल की उम्र में ऐसा कैसे हो गया? दरअसल उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने के पीछे बात उम्र की नहीं बात सोच की है। वो एक समाजवादी है, कट्टर समाजवादी। दुनिया को उसने अपनी आंखों से नहीं, समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की आंखों से देखाा था। 1994 में बनाई उनकी पार्टी समाजवादी जनपरिषद से उसका जैसे सांसों का रिश्ता था। मुझे याद है समाजवादी जनपरिषद की जितनी भी गोष्ठियों में उसे देखा था, बिल्कुल साधारण वेषभूषा। एक निपट देहाती जैसी ही। और उस पर भी वो उड़ीसा का है, जहां गरीबी हर दूसरे कदम पर कदम मिलाती हुई दिखाई देती है। अभी कुछ देर पहले ही बरगढ़ से साथी ‘हर’ का फोन आया था, उसने ये दुखदायी सूचना दी। कलेजा मुंह को आ गया। मनोरंजन से पिछली मु लाकात दिल्ली में ही विद्यार्थी युवजन सभा के एक सम्मेलन के दौरान हुई थी। संगठन को आगे ले जाने के उसके विचार, उसकी नेतृत्व क्षमता, उसके ओजपूर्ण भाषण, उसके नाटक, उसका अभिनय और अभिव्यक्ति, हर बात ऐसे सामने आ गई, जैसे कल की बात हो। इसी महीने के आखिरी में धनबाद में विद्यार्थी युवजन सभा का राष्ट्रीय सम्मेलन होना है, लेकिन अब संगठन के अध्यक्ष की मानसिक हालत ठीक नहीं है, ऐसे में संगठन के सामने दुविधा की स्थिति है। लेकिन सवाल ये उठता है कि उड़ीसा जैसे राज्य में, जहां की आबादी में गरीब 70 फीसद से भी ज्यादा हैं, वहां समाजवादी सोच रखने वाला एक नौजवान आखिर क्यों मानसिक रूप से संतुलन गवां बैठता है? क्या कोई रास्ता नहीं बचा है? क्या उस जैसे सोचने वाले हर नौजवान की यही परिणति होनी है? साथी हर से ये खबर मिलने के बाद मुझे साथी मनोरंजन का पहनावा याद आ गया। घुटने से जरा सा नीचे का एक पैजामा, एक खादी का कुर्ता और एक गमछा। बस यही उसकी पूरी पोशाक थी। और ऐसा भी नहीं था कि उसके पास कई जोड़े कुर्ते पैजामे थे। एक जोड़ा जो वो पहनता था, उसके अलावा सिर्फ एक जोड़ा और होता, जो उसके कपड़े के ही झोले की शोभा बढ़ा रहा होता। और जब पहने हुए कपड़े धोए जाते तो वे जोड़े झोले से बाहर आते। बिलकुल समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। शोक मनाउं या फिर दिल को दिलासा दूं कि आज के समाजवादियों का चोला बदल गया है। लोहिया और जयप्रकाश के समय का समाजवाद अब नहीं रहा। अब मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह का समाजवाद बचा है जो लंबी लंबी कारों में चलता है। और उनके अलावा जो तथाकथित समाजवादी शिक्षक हैं भी उनके पास एक से ज्यादा कारें हैं, दिल्ली में ही एकाधिक मकान हैं, विदेशों में पढ़ा रहे हैं। मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि लोहिया और जयप्रकाश के समाजवाद का एक सिपाही धाराशाही हो गया है। पूंजीवादी ताकतों के सामने उसका प्रतिरोध इतने भर ही था, अब शायद उसकी आवाज कभी सुनने को ना मिले। ना तो मंच से और ना ही रंगमंच से। मैं भी डर गया हूं। और उड़ीसा में अपने दूसरे साथियों को ये सलाह दे रहा हूं कि अब ना उठाओ समाजवाद का डंडा। बस घर चलाओ, और जीवन यापन करो। देश ऐसे ही चलता रहेगा। किसी को कोई शिकायत न होगी, दुनिया भी अपनी तरह चलती रहेगी, किसी को कोई शिकायत न होगी।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

कम करो खर्चे!

इन दिनों केंद्र सरकार का परिवार गरीबी से जूझ रहा है। देश में गरीबी छा रही है। कहिए, कि गरीबी आ रही है। तभी तो परिवार के वरिष्ठ सदस्य और उनसे जरा से कनिष्ठ सदस्यों ने फाइव स्टार होटल छोड़कर राज्य के भवन में निवास बनाने की पहल की, या अपने दूसरे स्तर से खर्च कम करने का प्रयास किया। दरअसल पूरे कुनबे का खर्चा झेल रहे प्रणब मुखर्जी को लगने लगा था कि परिवार का खर्चा अनावश्यक रूप से बढ़ गया है। जिससे परिवार को बुरा दिन देखने को मिल सकता है, ऐसे में उन्होंने वरिष्ठ सदस्य को सीधे तो कुछ नहीं कहा, मीडिया में सीधे ही कह दिया कि परिवार के खर्चे कम करने के लिए बुजुर्ग और जिम्मेदार सदस्यों को अपने "शाह'खर्ची कम करनी चाहिए। साथ ही जो परिवार के जो युवा भी फिजुलखर्ची कर रहे हैं, उन्हें भी अपने खर्च कम करने चाहिए। आखिर परिवार का खर्च चलाना कोई आसान काम तो है नहीं, उस हिसाब से कमाई हो नहीं रही थी, हालांकि परिवार में फांके की नौबत नहीं आई है, लेकिन आमद और खर्च का हिसाब देखने वाले को तो भविष्य के बारे में सोचकर ही जेब ढीली करनी होती है। तो क्या बुरा है यदि परिवार का वित्तीय हिसाब रख रहे प्रणब मुखर्जी ने ये सलाह दे दी। अब जब खर्च कम करने की बात थी तो "किचन संभाल रही' परिवार की मुखिया भी कैसे पीछे रहती? उन्होंने भी अपने खर्च में कटौती का ऐलान कर दिया। और हवाई जहाज में गरीबों की तरह इकोनोमी क्लास में सफर किया। अपने सुरक्षाकर्मियों की संख्या में भी कटौती कर दी। और जब परिवार की मुखिया ने ये कदम उठाया तो उनके बेटे भी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी हवाई जहाज छोड़ कर रेलगाड़ी पकड़ी और छुक-छुक करते हुए लुधियाना पहुंच गए। आखिर परिवार का खर्चा संभालने वाले प्रणब दा ने कहा था सो बात सबको माननी ही थी।

चलते चलते

विपक्षी आरोप लगाते हैं कि देश सूखे, गरीबी और महंगाई से जूझ रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लेकिन कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। चहुंओर शांति ही शांति है। बस चीनी पैंतीस रूपए किलो हो गई है। सबसे सस्ता चावल भी बीस रूपए के पार है। खुला आटा पंद्रह रुपए किलो है। अगर नमक बढ़िया चाहिए तो एक किलो के लिए सत्रह रुपए का भुगतान करना होगा। तो जहां लोग हजारों रुपए महीना कमा रहे हों, वहां कहां है महंगाई। लेकिन हर आदमी हजारों रूपए महीना नहीं कमा रहा, आम आदमी दाने दाने को मोहताज है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी मंदी के संकट से जूझ रहा है। ऐसे में केंद्र 'सरकार' परिवार को इसका सामना करना पड़ रहा है तो अजूबा क्या है?