कई बार कुछ बातें सिर्फ़ कहने के लिए कही जाती है,जिनका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन कई बार कुछ बातों का नही होते हुए भी मतलब होता है।
शुक्रवार, 29 मई 2009
2. पत्रकार परांठें वाला ?
गुरुवार, 28 मई 2009
1. पत्रकार परांठें वाला ?
चार पत्रकार एक साथ बैठे थे। योजना बना रहे थे, अपने भविष्य की। दरअसल, सभी परेशान थे अपने आज से, परेशान थे, कल क्या करेंगे। कुछ शादीशुदा थे, कुछ कुंवारे थे। जो शादीशुदा थे, उनने अपने प्रेम को बचाए और बनाए रखने के लिए शादी की थी, जो कुंवारे थे, वे शादी से पहले सेट्ल होने का इंतजार कर रहे थे। सभी न्यूज चैनल में काम करते थे, लेकिन विडंबना देखिए, सेट्ल होने का इंतजार कर रहे थे।
ऑफिस में लंच hour चल रहा था, ये सभी गहरे विचार मंथन में डूबे थे, क्या करें? कैसे करें? तो उनमें से एक ने कहा- ज्यादा चिंता मत करो, कुछ नहीं तो गांव में अपनी काफी प्रोपर्टी है। एकदम झकास। वहीं होटल चलता है। मेरा मन तो होटल के काम में कभी लगा नहीं, लेकिन जब जेब खाली होती है तब गल्ले पर बैठ जाता हूं। सबलोग वहीं चल चलेंगे और काम करेंगे। कहीं दूर पहाड़ों में है उनका गांव। माता के दरबार के आसपास कहीं। उन सज्जन ने सबके लिए काम भी तय कर लिए। उनमें से एक तथाकथित पत्रकार को खाना बनाने का शौक था, और वो अक्सर परांठें की दुकान खोलने की बात करते थे, कोई भी, कुछ भी विचार कर रहा हो, चाहे राजनैतिक बातचीत हो रही हो, या प्रबंधन की अव्यवस्था का रोना रोया जा रहा हो, या कोई दूसरी नौकरी खोजने की बात कर रहा हो, वे बस अपनी परांठों की दुकान लेकर बीच में ही कूद पड़ते। ये अलग बात है कि वे भद्र पुरूष पिछले करीब तीन बरसों से पराठों की दुकान खोलने की बात कह रहे हैं, सिर्फ बात ही कह रहे हैं। तो उन्हें जिम्मा मिला होटल में बावर्चियों की देख रेख और खाने के प्रबंधन का। याद रखिए, ये लंच टाइम में बनाया जा रहा प्रोग्राम है। दूसरे तथाकथित पत्रकार काफी ज्ञानी थे, काफी पढ़े लिखे भी थे, सो उनके ज्ञान पर शंका करना जैसे अपने आप पर शंका करना हो। जैसे आपके कंप्यूटर में गूगल सर्च काम करता है, कुछ उस तरह के ज्ञानी थे वे। चाहे कुछ भी पूछ लीजिए, वो उसका वर्तमान, इतिहास, और भविष्य सबकुछ दिल खोल कर बताने की इच्छा रखते थे, जबतक कोई उनसे चुप रहने को ना कह दे, वो शांत ही नहीं होते, इसलिए लोग उनसे इसी शर्त पर पूछते थे, कि जितना पूछें, उतना ही बताना। तो उस बैठक में उन्हें काम मिला होटल के बाहर ग्राहकों को ज्ञान देने का।
सभी मौज में थे। सबके सब सपने देखने लगे। पहाडों की हसीन वादियों में रहना, खाना... बिलकुल मुफ्त। और कमाई अलग से। समझिए बोनस मिल रहा हो, तो इससे बढ़िया भला और क्या हो सकता है। प्लान बन गया है, देखिए कब तक इस पर अमल हो पाता है। या फिर परांठें की दुकान खोलने वाले भाई साहब की तरह ये प्रोग्राम भी तीन साल आगे टल जाता है। बहरहाल, एक प्रोग्राम बना है, ये भी अपने आप में बड़ी बात है।
और हां, होटल वाले भाई साहब की तो वहां गाड़ियां भी चलती हैं, तो कुछ और लोगों के लिए भी जगह बन सकती है, फिलहाल इंतजार है, उन सज्जनों का, जो अखबार या टीवी चैनल में नौकरी कर रहे हैं, और अपना प्रोफेशन बदलना चाहते हैं।
मुझे उम्मीद है कि ऐसे कई सज्जन हमारे बीच जल्द ही पाए जाएंगे, और जैसे ही वे मिलेंगे, इस लंच टाईम के गहन विचार पुराण को हम आगे बढ़ाएंगे। तब तक के लिए इंतजार कीजिए...
मंगलवार, 26 मई 2009
नेताओं के वादे
नेता क्यों रिटायर नहीं होते?
मास्टर हो या लेकचरर,
रीडर हो या प्रोफेसर,
सभी रिटायर होते हैं।
वकील हो या बैरिस्टर,
क्लर्क हो या कलेक्टर,
निर्धारित उम्र के बाद,
सभी रिटायर होते हैं।
नौकर हो या दुकानदार,
लुटेरा हो या पाकेटमार,
निर्धारित उम्र के बाद,
सभी रिटायर होते हैं,
भावी पीढ़ी के लिए
जगह छोड़ते हैं,
फिर,
नेता क्यों रिटायर नहीं होते
उनकी रिटायरमेंट की उम्र क्यों नहीं होती
वे रिटायर तभी क्यों होते हैं
जब मर जाते हैं?
या
भावी पीढ़ी द्वारा मार दिये जाते हैं।