सोमवार, 17 अगस्त 2009

नदियों की गलती क्या है?

नदियों को हमारे देश में मां का दर्जा दिया जाता है। गंगा, यमुना और भी कितनी ही जीवनदायिनी नदियां हैं जो जहां से भी गुजरती हैं सम्मान से पूजी जाती हैं। उन्हें मां स्वरूपा मानते हुए लोग उनकी आरती करते हैं और हो भी क्यों न? वे जहां से भी गुजरती हैं, लोगों का आसरा बनती हैं। तट पर रहने वाले लोग इन जीवनदायिनी नदियों के सहारे अपनी जीविका पाते हैं। मल्लाह इन नदियों में अपनी नाव चलाकर जीवन की नैया खेते हैं तो मछुआरे इनमें पलने वाली मछलियों को अपने जीवन का पालनहार बनाते हैं। इन्हीं नदियों से निकली नहरों के सहारे किसान अपने खेतों की सिंचाई करता है। और अपनी श्रमसीकरों की बूंद बहाकर खेतों से सोना उपजाता है जिससे उसका पेट पलता है, उसके परिवार का पेट पलता है, और अंततः पूरे देश का पेट पलता है। लेकिन इन दिनों देश की महानतम नदियों (धार्मिक रूप से भी और सांस्कृतिक रूप से) का अस्तित्व ही खतरे में हैं। उत्तराखंड से निकली यमुना करीब पांच सौ किलोमीटर बाद देश की राजधानी दिल्ली में इतनी प्रदूषित हो जाती है कि उसकी ओर आंख उठाकर देखना भी मुश्किल हो जाता है, उसमें स्नान करके पाप धोने की बात तो दूर की बात है। महज पांच सौ किलोमीटर की दूरी तय करने के दौरान यमुना को भारी यातना से गुजरना पड़ता है, काफी तकलीफ सहनी पड़ती है। इस स्वच्छंद बहती नदी के निर्मल शरीर पर इतने जख्म लगते हैं कि मलहम लगाने वाले भी मलहम लगाने की जगह तलाशते दिखायी पड़ते हैं। इस छोटी से दूरी में इस सरस सलीला नदी में इतने उद्योगों, कल-कारखानों का गंदा रसायनिक अपशिष्ट पदार्थ गिरता है, जिसे ये झेल नहीं पाती, और धीरे-धीरे गंदली होती हुई खुद ही स्याह काली हो जाती है। कुछ ऐसा ही हाल पतित पावनी गंगा का भी है। वाराणसी या पटना में नहीं, बल्कि अपने ही उद्गम स्थल पर। गंगोत्री पर। यहां भी गंगा की पवित्रता, उसकी स्वच्छता अब अक्षुण्ण नहीं रह गयी है। उसका निर्मल ठंडा जल बहता तो अब भी उसी रफ्तार से है, लेकिन अब गंगोत्री पर भी गंगा उतनी पवित्र नहीं रह गयी है, जितना उसे माना जाता है। अब वहां भी चारों ओर कूड़ा और गंदगी का अंबार दिखायी देता है। मन्दाकनी और अलकनन्दा की हालत भी इन नदियों से ज्यादा अच्छी नहीं है। क्रमशः केदारनाथ धाम और बद्रीनाथ धाम से निकलने वाली इन नदियों की हालत भी अपने मुहाने पर ही खराब हो जाती है, जो नीचे तक आते आते ऐसी हो जाती है कि इन नदियों के शीतल जल की जगह हमारा ध्यान इनके गंदेपन की ओर ही जाता है। आखिर नदियों के मुहाने पर ही इतनी गन्दगी की वजह क्या है? आखिर किसने किया इन्हें गन्दा? किसने लगाया इनके दामन पर बदनुमा दाग? इस गन्दगी के पीछे कसूर किसका है? इन नदियों की इस हालत के लिए क्या सिपर्फ कल-कारखाने जिम्मेदार हैं? क्या सिर्फ सरकारें जिम्मेदार हैं? नहीं। इन सवालों के जवाब आपको स्वतः मिल जाएंगे। ज्यादा सोचने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। अगर आप नहीं सोच पाए हों तो एक ब्रह्म सत्य जान लीजिए, वो इंसान ही है, जिसने कल-कल बहती इन नदियों की सुंदरता, उनकी निर्झरता और उनकी पवित्रता को नुकसान पहुंचाया है। कहते हैं इंसान जहां पहुंच जाता है, कुछ करे या न करे, गंदगी जरूर फैलाता है। कुछ ऐसा ही इन नदियों के साथ भी हो रहा है। कुछ लोग पर्यटन के बहाने इन पवित्र नदियों के मुहानों पर पहुंच रहे हैं तो कुछ भक्ति के सागर में गोता लगाने के लिए। लोग इन जगहों पर दो-तीन दिन ठहर कर यहां की प्राकृतिक सुंदरता को निहार कर अपना दिल खुश करते हैं, यहां की तारीफ करते हैं, तो कुछ लोग गंगोत्री और यमुनोत्री में स्नान कर अपना और अपने पूर्वजों का भूत और भविष्य सुधारने की आशा करते हैं। चाहते हैं कि उनके पूर्वजों को मोक्ष मिल जाए। कामना मोक्ष पाने की है, लेकिन किन शर्तों पर? गंगोत्री और यमुनोत्री में स्नान करने के बाद लोग क्या करते हैं? ये बताने के लिए सिर्फ ये तस्वीरें ही काफी हैं।
गंगोत्री में स्नान के बाद श्रद्धालु महिलाएं अपने वस्त्र धो रही हैं। यमुना के उद्गम पर ही लोगों ने अपने पुराने चिथड़े फेंक रखे हैं। कहीं पानी में प्लास्टिक अटकी पड़ी है। लेकिन इनकी सुध लेने वाला कौन है। केदारनाथ धाम से निकलने वाली मंदाकिनी की अगर बात करें तो यहां जो लोग बारिश से बचने के लिए बीस-बीस रूपए खर्च करके प्लास्टिक की रेनकोट खरीदते हैं, लेकिन भगवान के दर्शनों के उपरांत वहां से जाते समय उसे अपने साथ नहीं ले जाते, बल्कि गौरीकुंड तक ले जाना भी उन्हें भारी लगने लगता है, वे उस प्लास्टिक को केदारनाथ से गौरीकुंड के बीच ही कहीं छोड़ देते हैं। ये पूरी तरह से मौसम और उन श्रद्धालुओं की इच्छा पर निर्भर करता है। हालांकि राज्य सरकार ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया हुआ है, लेकिन उस चेतावनी के बोर्ड को देखता कौन है, और अगर कोई देख भी ले तो पढ़कर उस पर अमल कौन करता है?

सबने अपनी भक्ति से अपने आराध्य को प्रसन्न कर लिया है, अब उन्हें किसी का भय नहीं है और ना ही किसी अन्य चीज से सरोकार ही है। होती हो गंगा गंदी तो उनकी बला से। यमुनोत्री से उनका क्या वास्ता। मंदाकिनी तो अब आना ही नहीं है जब ये तीनों ही नहीं तो अलकनंदा का क्या कहना? इन तीर्थों पर आने वाले सभी भक्त अपनी ईश भक्ति में मग्न हैं। उनकी सोच उनके आराध्य तक ही है, वे इससे आगे कुछ सोच ही नहीं पाते। उन्हें ना तो प्रकृति की चिंता है, और ना ही उन निर्झरणियों की जो आज भी समतल भूभाग में हजारों लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी हैं। उनके लिए मां समान हैं। उनका पालन-पोषण करती हैं।

इन पवित्र नदियों की मर्यादा, इनकी शीतलता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए चार धाम की यात्रा करने वाले भक्तों, श्रद्धालुओं और पर्यटकों से बस ये लेखक इतनी से गुजारिश करता है कि आप चाहे जितना भी प्लास्टिक का इस्तेमाल करें, उसे वहां फेंकें नहीं। इन नदियों के उद्गम पर चाहे जितना स्नान करें, बस गुजारिश इतनी ही है कि वहीं खड़े होकर अपने कपड़े न धोएं। दूसरों की भावनाएं भी हैं, कम से कम इतना तो जरूर सोचें कि आपके बाद आपके बच्चे भी इन्हीं तीर्थस्थलों पर आएंगे। तो उनके लिए ही सही, इन पवित्र धामों को इतना तो पवित्र रहने ही दें कि जब वो आएं तो वे भी आपकी ही तरह इन धामों से जुड़ाव महसूस कर सकें।

1 टिप्पणी:

Brijesh Dwivedi ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है आपने....
नदियों के बारे में सोचने और कुछ करने का टाइम अब किसके पास है...