कई बार कुछ बातें सिर्फ़ कहने के लिए कही जाती है,जिनका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन कई बार कुछ बातों का नही होते हुए भी मतलब होता है।
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
तोड़ो-तोड़ो, जोड़ना मुश्किल है
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
सम्मानित होने का सपना
रविवार, 13 दिसंबर 2009
शनिवार, 12 दिसंबर 2009
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
कला के बिंब
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
मैं महंगाई हूं
इन दिनों मेरी चर्चा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। चारों ओर, खेत खलिहान से लेकर घरों के दलान तक। शहर की गलियों से लेकर खेल के मैदान तक। हर तरफ मैं ही मैं हूं, दूसरा कोई नहीं। जब मैं अपने शबाब पर आती हूं तो देश की ज्यादातर आबादी को नानी याद आ जाती है। वे हाय हाय करते दिखाई देते हैं। फर्क नहीं पड़ता तो सिर्फ उनको जिनके पास अकूत दौलत है या फिर उनको जो सरकारी खजाने से अपना परिवार चलाते हैं।
जी हां, आपने बिलकुल ठीक समझा। मैं महंगाई हूं। इन दिनों पूरे देश में मेरा ही जलवा है। हर ओर मेरी ही चर्चा है। मैं सर्वत्र व्याप्त हूं। मैं कहीं भी पहुंच सकती हूं। और किसी पर भी काबिज हो सकती हूं। पिछले दिनों सब्जी के राजा कहे जाने वाले आलू को गुमान हो गया था कि उससे सस्ती कोई सब्जी नहीं, तो बस मैं उस पर काबिज हो गई। अब हाल देख लो। .... ऐसी ही कुछ सनक सिरफिरी दाल पर भी सवार हो गई थी, जिसे देखो वही कहता था- बस, दाल रोटी चल रही है। मैं ऐसा कब तक देख सकती थी। अगर देखती रहती तो मेरा वजूद ही खत्म हो जाता, बस मैं दाल पर सवार हो गई, अब बताओ कौन कहता है-‘दाल रोटी चल रही है।’ मैंने बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके दूध पर भी अपनी गिद्ध नजरें गड़ा दीं। अब गरीब माएं बच्चों को पानी मिलाकर दूध पिलाती हैं। मेरी खुद की आंखों में पानी भर आया। मुझे द्रोणाचार्य याद आ गए। किस तरह उन्होंने अश्वत्थामा को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया था चीनी मिलाकर। लेकिन मैंने तो चीनी की मिठास में भी जहर घोल दिया है। आखिर, मुझे अपना वजूद बचाए रखना है। सरकारें तो अपना वजूद बचाने के लिए नरसंहार तक करवा देती हैं, न जाने कितनी मांओं की गोद सूनी करवा देती हैं। कितनी सुहागिनों को विधवा करवा देती हैं। इनके मुकाबले तो मैंने कुछ भी नहीं किया।
मैं कोने में गुमसुम पड़ी थी, चुपचाप। सब अपनी अपनी कर रहे थे। दिल्ली की सरकार आंखें मूंदे काॅमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में लगी थी, उसे भी मुझसे मतलब नहीं थी। सरकार में शामिल नेताओं, विपक्षी नेताओं को मेरे आने जाने से विशेष फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मुझे अपना वजूद बचाना था। इसलिए मैं हर दिन किसी न किसी जरूरी वस्तु पर सवार होती गई, यहां तक कि कम कमाने वाले लोगों के जीवन की गाड़ी करीब करीब पंचर हो गई, लेकिन ‘गरीबों की सरकार’ फिर भी नहीं चेती। बल्कि उसने और चीजों पर सवार करवा दिया। पहले बिजली के तारों पर सवारी करवाई, और बिजली के दाम बढ़ा दिए, फिर डीटीसी की नई नवेली बसों में सवारी करवा कर अपनी जेब गर्म की, और अब दिल्ली की पहचान बन चुकी मेट्रो में भी मुझे सवार कर दिया। लोग मेरी हाय-हाय कर रहे हैं। लेकिन कर कुछ भी नहीं रहे।
अकेले मैंने देश की सरकार गिरवा दी थी। वो भी सिर्फ प्याज पर सवार होकर। लेकिन पता नहीं, इस बार इन सरकारों को क्या हो गया है? सभी जानबूझ कर मुझे जरूरी चीजों पर सवार करा रहे हैं। विपक्षी नेता मेरे बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं, लेकिन उन्हें भी पता है, जब मेरे चढ़ते जाने के पीछे सरकार ही है तो कोई उसका और मेरा भी क्या बिगाड़ लेगा। अब किसी के पास रीढ़ नहीं बची है, सभी बिना रीढ़ वाले जीव की तरह रेंग रहे हैं। और जनता पिस रही है।
बुधवार, 11 नवंबर 2009
पैरोल पर रिहाई चाहिए
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
नक्सली, नक्सली और नक्सली

बुधवार, 4 नवंबर 2009
फिट रहने का मामला है
सोमवार, 28 सितंबर 2009
चार पन्नों का प्रमाणपत्र
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
एक था समाजवादी!
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
कम करो खर्चे!
इन दिनों केंद्र सरकार का परिवार गरीबी से जूझ रहा है। देश में गरीबी छा रही है। कहिए, कि गरीबी आ रही है। तभी तो परिवार के वरिष्ठ सदस्य और उनसे जरा से कनिष्ठ सदस्यों ने फाइव स्टार होटल छोड़कर राज्य के भवन में निवास बनाने की पहल की, या अपने दूसरे स्तर से खर्च कम करने का प्रयास किया। दरअसल पूरे कुनबे का खर्चा झेल रहे प्रणब मुखर्जी को लगने लगा था कि परिवार का खर्चा अनावश्यक रूप से बढ़ गया है। जिससे परिवार को बुरा दिन देखने को मिल सकता है, ऐसे में उन्होंने वरिष्ठ सदस्य को सीधे तो कुछ नहीं कहा, मीडिया में सीधे ही कह दिया कि परिवार के खर्चे कम करने के लिए बुजुर्ग और जिम्मेदार सदस्यों को अपने "शाह'खर्ची कम करनी चाहिए। साथ ही जो परिवार के जो युवा भी फिजुलखर्ची कर रहे हैं, उन्हें भी अपने खर्च कम करने चाहिए। आखिर परिवार का खर्च चलाना कोई आसान काम तो है नहीं, उस हिसाब से कमाई हो नहीं रही थी, हालांकि परिवार में फांके की नौबत नहीं आई है, लेकिन आमद और खर्च का हिसाब देखने वाले को तो भविष्य के बारे में सोचकर ही जेब ढीली करनी होती है। तो क्या बुरा है यदि परिवार का वित्तीय हिसाब रख रहे प्रणब मुखर्जी ने ये सलाह दे दी। अब जब खर्च कम करने की बात थी तो "किचन संभाल रही' परिवार की मुखिया भी कैसे पीछे रहती? उन्होंने भी अपने खर्च में कटौती का ऐलान कर दिया। और हवाई जहाज में गरीबों की तरह इकोनोमी क्लास में सफर किया। अपने सुरक्षाकर्मियों की संख्या में भी कटौती कर दी। और जब परिवार की मुखिया ने ये कदम उठाया तो उनके बेटे भी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी हवाई जहाज छोड़ कर रेलगाड़ी पकड़ी और छुक-छुक करते हुए लुधियाना पहुंच गए। आखिर परिवार का खर्चा संभालने वाले प्रणब दा ने कहा था सो बात सबको माननी ही थी।
चलते चलते
विपक्षी आरोप लगाते हैं कि देश सूखे, गरीबी और महंगाई से जूझ रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लेकिन कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। चहुंओर शांति ही शांति है। बस चीनी पैंतीस रूपए किलो हो गई है। सबसे सस्ता चावल भी बीस रूपए के पार है। खुला आटा पंद्रह रुपए किलो है। अगर नमक बढ़िया चाहिए तो एक किलो के लिए सत्रह रुपए का भुगतान करना होगा। तो जहां लोग हजारों रुपए महीना कमा रहे हों, वहां कहां है महंगाई। लेकिन हर आदमी हजारों रूपए महीना नहीं कमा रहा, आम आदमी दाने दाने को मोहताज है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी मंदी के संकट से जूझ रहा है। ऐसे में केंद्र 'सरकार' परिवार को इसका सामना करना पड़ रहा है तो अजूबा क्या है?
रविवार, 30 अगस्त 2009
कहाँ है महंगाई
सोमवार, 17 अगस्त 2009
नदियों की गलती क्या है?

सबने अपनी भक्ति से अपने आराध्य को प्रसन्न कर लिया है, अब उन्हें किसी का भय नहीं है और ना ही किसी अन्य चीज से सरोकार ही है। होती हो गंगा गंदी तो उनकी बला से। यमुनोत्री से उनका क्या वास्ता। मंदाकिनी तो अब आना ही नहीं है जब ये तीनों ही नहीं तो अलकनंदा का क्या कहना? इन तीर्थों पर आने वाले सभी भक्त अपनी ईश भक्ति में मग्न हैं। उनकी सोच उनके आराध्य तक ही है, वे इससे आगे कुछ सोच ही नहीं पाते। उन्हें ना तो प्रकृति की चिंता है, और ना ही उन निर्झरणियों की जो आज भी समतल भूभाग में हजारों लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी हैं। उनके लिए मां समान हैं। उनका पालन-पोषण करती हैं।
शुक्रवार, 24 जुलाई 2009
देश का भविष्य


आखिर हमारे देश का भविष्य इस तरह सफर क्यों कर रहा है? क्या उसके पास और कोई साधन नही है? क्या इस डीटीसी बस के बाद दूसरी बस नही आएगी? अगर आएगी तो फिर इतनी जल्दी क्या है? तनिक ठहर जाओ ए देश के भविष्य। कोई तुम्हारा इन्तजार कर रहा है। इतनी जल्दी किस बात की है? अभी तो देश बहुत ही इमानदार और मजबूत हाथों में है। हालांकि इन मजबूत हाथों की उम्र ज्यादा हो चुकी है। वे अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, उनके जाने के बाद तुम्हें ही तो देश का दायित्व संभालना है। तुम तो देश के भविष्य हो, आगे चल कर देश का भार तुम्हारे ही हाथों में आना है, तो इतनी जल्दी में क्यों हो? तनिक ठहर जाओ, दूसरी बस का इन्तजार कर लो। और फिर तुमने तो अभी दुनिया भी नहीं देखी है, देख लो, समझ लो। फिर आगे बढ़ जाना, लेकिन इतनी जल्दी तो न करो ऐ मेरे देश के भविष्य। आप भी इन्हें कुछ कहिए ना!
सोमवार, 20 जुलाई 2009
स्टेशन तो वर्ल्ड क्लास है, लेकिन...

शनिवार, 18 जुलाई 2009
बिकाऊ है, बोलो खरीदोगे?

रविवार, 28 जून 2009
जब कभी बेचैन होता हूं,
अकेले में गमगीन होता हूँ,
तब मुझे याद आती हो
तुम।
दिन तो फ़िर भी कट जाता है,
रात नही कटने पाती है,
फ़िर तो मेरे सिरहाने में
आ जाती हो
तुम।
यूँ ही तारे गिनते गिनते,
खुली आँख ही सपने बुनते,
सपनो में मुस्काती हो,
मुझे सारी रात जगाती हो,
तुम।
देखता हूँ तुमको हरदम,
हरवक्त मेरे पास हो तुम,
सपना हो या,
सच हो मगर,
एक सुखद एहसास हो
तुम।
गुरुवार, 25 जून 2009
कौन मानता है?
मेरे मित्र हैं, असम यूनिवर्सिटी में पढाते हैं, उनसे puch कर उनकी एक कविता डालरहा हूँ, पढिये और सोचिये, क्या हम भी ऐसे ही नहीं हो गए हैं?
आने पर दादी ने कहा
मेरी पोथी तो देना
मैंने कहा-
अभी जा रहा हूँ सुनने
परिवार की अवधारणा पर
एक व्याख्यान,
आने पर दूंगा।
उनका ब्लॉग है...
गुरुवार, 18 जून 2009
ये विज्ञापन का नया अंदाज है...
सोमवार, 8 जून 2009
4. पत्रकार परांठें वाला?
शनिवार, 6 जून 2009
मेरा वक्त और तुम्हारी राय
सोमवार, 1 जून 2009
अनुवादक बनते पत्रकार ?
शुक्रवार, 29 मई 2009
2. पत्रकार परांठें वाला ?
गुरुवार, 28 मई 2009
1. पत्रकार परांठें वाला ?
चार पत्रकार एक साथ बैठे थे। योजना बना रहे थे, अपने भविष्य की। दरअसल, सभी परेशान थे अपने आज से, परेशान थे, कल क्या करेंगे। कुछ शादीशुदा थे, कुछ कुंवारे थे। जो शादीशुदा थे, उनने अपने प्रेम को बचाए और बनाए रखने के लिए शादी की थी, जो कुंवारे थे, वे शादी से पहले सेट्ल होने का इंतजार कर रहे थे। सभी न्यूज चैनल में काम करते थे, लेकिन विडंबना देखिए, सेट्ल होने का इंतजार कर रहे थे।
ऑफिस में लंच hour चल रहा था, ये सभी गहरे विचार मंथन में डूबे थे, क्या करें? कैसे करें? तो उनमें से एक ने कहा- ज्यादा चिंता मत करो, कुछ नहीं तो गांव में अपनी काफी प्रोपर्टी है। एकदम झकास। वहीं होटल चलता है। मेरा मन तो होटल के काम में कभी लगा नहीं, लेकिन जब जेब खाली होती है तब गल्ले पर बैठ जाता हूं। सबलोग वहीं चल चलेंगे और काम करेंगे। कहीं दूर पहाड़ों में है उनका गांव। माता के दरबार के आसपास कहीं। उन सज्जन ने सबके लिए काम भी तय कर लिए। उनमें से एक तथाकथित पत्रकार को खाना बनाने का शौक था, और वो अक्सर परांठें की दुकान खोलने की बात करते थे, कोई भी, कुछ भी विचार कर रहा हो, चाहे राजनैतिक बातचीत हो रही हो, या प्रबंधन की अव्यवस्था का रोना रोया जा रहा हो, या कोई दूसरी नौकरी खोजने की बात कर रहा हो, वे बस अपनी परांठों की दुकान लेकर बीच में ही कूद पड़ते। ये अलग बात है कि वे भद्र पुरूष पिछले करीब तीन बरसों से पराठों की दुकान खोलने की बात कह रहे हैं, सिर्फ बात ही कह रहे हैं। तो उन्हें जिम्मा मिला होटल में बावर्चियों की देख रेख और खाने के प्रबंधन का। याद रखिए, ये लंच टाइम में बनाया जा रहा प्रोग्राम है। दूसरे तथाकथित पत्रकार काफी ज्ञानी थे, काफी पढ़े लिखे भी थे, सो उनके ज्ञान पर शंका करना जैसे अपने आप पर शंका करना हो। जैसे आपके कंप्यूटर में गूगल सर्च काम करता है, कुछ उस तरह के ज्ञानी थे वे। चाहे कुछ भी पूछ लीजिए, वो उसका वर्तमान, इतिहास, और भविष्य सबकुछ दिल खोल कर बताने की इच्छा रखते थे, जबतक कोई उनसे चुप रहने को ना कह दे, वो शांत ही नहीं होते, इसलिए लोग उनसे इसी शर्त पर पूछते थे, कि जितना पूछें, उतना ही बताना। तो उस बैठक में उन्हें काम मिला होटल के बाहर ग्राहकों को ज्ञान देने का।
सभी मौज में थे। सबके सब सपने देखने लगे। पहाडों की हसीन वादियों में रहना, खाना... बिलकुल मुफ्त। और कमाई अलग से। समझिए बोनस मिल रहा हो, तो इससे बढ़िया भला और क्या हो सकता है। प्लान बन गया है, देखिए कब तक इस पर अमल हो पाता है। या फिर परांठें की दुकान खोलने वाले भाई साहब की तरह ये प्रोग्राम भी तीन साल आगे टल जाता है। बहरहाल, एक प्रोग्राम बना है, ये भी अपने आप में बड़ी बात है।
और हां, होटल वाले भाई साहब की तो वहां गाड़ियां भी चलती हैं, तो कुछ और लोगों के लिए भी जगह बन सकती है, फिलहाल इंतजार है, उन सज्जनों का, जो अखबार या टीवी चैनल में नौकरी कर रहे हैं, और अपना प्रोफेशन बदलना चाहते हैं।
मुझे उम्मीद है कि ऐसे कई सज्जन हमारे बीच जल्द ही पाए जाएंगे, और जैसे ही वे मिलेंगे, इस लंच टाईम के गहन विचार पुराण को हम आगे बढ़ाएंगे। तब तक के लिए इंतजार कीजिए...
मंगलवार, 26 मई 2009
नेताओं के वादे
नेता क्यों रिटायर नहीं होते?
मास्टर हो या लेकचरर,
रीडर हो या प्रोफेसर,
सभी रिटायर होते हैं।
वकील हो या बैरिस्टर,
क्लर्क हो या कलेक्टर,
निर्धारित उम्र के बाद,
सभी रिटायर होते हैं।
नौकर हो या दुकानदार,
लुटेरा हो या पाकेटमार,
निर्धारित उम्र के बाद,
सभी रिटायर होते हैं,
भावी पीढ़ी के लिए
जगह छोड़ते हैं,
फिर,
नेता क्यों रिटायर नहीं होते
उनकी रिटायरमेंट की उम्र क्यों नहीं होती
वे रिटायर तभी क्यों होते हैं
जब मर जाते हैं?
या
भावी पीढ़ी द्वारा मार दिये जाते हैं।