गुरुवार, 13 जनवरी 2011

क्या अब बदलेगी स्कूलों की तकदीर

.. बीसवीं सदी के आखिरी दशक की शुरुआत थी। बिहार के सरकारी स्कूलों में बच्चे नहीं दिखाई देते थे। तब लालू प्रसाद यादव ने चरवाहा विद्यालय जैसी शुरुआत की थी। असर भी हुआ। बच्चों को खाने के साथ साथ रूपये भी मिलते थे। बच्चों की संख्या बढ़ने लगी थी। समय तेजी से बदला। शहरवासियों के साथ साथ ग्रामीणों की सोच में भी बदलाव आया। बच्चों को पढ़ाने को प्राथमिकता दी जाने लगी। चाहे पेट काटकर ही सही, गरीब से गरीब किसान भी बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचने लगा। बच्चे स्कूल जाने लगे। जो प्राइवेट स्कूलों में नहीं भेज सकते थे, उन्होंने सरकारी स्कूलों की ही शरण ली। लेकिन सरकारी तंत्र और इसकी कार्यप्रणाली अपनी ही बनाई लीक पर चलती है। पहले स्कूलों में बच्चे नहीं थे, तो कोई बात नहीं थी, लेकिन जब बच्चे आए तो पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिले। उनके पास दूसरे भी काम थे। ट¬ूशन लेना, खेती-बाड़ी करना, साथ-साथ राशन की दुकान भी चलाना। यानी नौकरी के अलावा दूसरे पार्ट टाइम जॉब थे, जिसमें वे व्यस्त रहते। स्कूल जाकर हाजिरी लगाने के बाद स्कूल और देश के भविष्य के प्रति उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती थी। लेकिन थे तो सरकारी नौकर ही। इसलिए सरकारी काम भी करने होते थे। चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो जैसे कितने ही अभियान इन स्कूलों के शिक्षकों के भरोसे ही चलते हैं। लेकिन पिछले दिनों पटना हाई कोर्ट के फैसले से उम्मीद है कि एक बार फिर देश का भविष्य उन्हीं प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालयों में निखरेगा, जहां पढ़ाई को दोयम दर्जे का काम समझा जाता था। कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान फैसला दिया है कि अब प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को अध्ययन-अध्यापन के समय में गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। यानी जब स्कूल खुले हों तो पढ़ाई को बाधित कर शिक्षकों को चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो या ऐसी अन्य जिम्मेदारियां नहीं दी जाएंगी। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने भी संत मैरी बनाम एमसीडी मामले का हवाला देते हुए प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों में प्रतिनियुक्ति करने पर रोक लगाई थी। यानी अब उम्मीद की जा सकती है कि संविधान ने जिन छह से चौदह साल तक के बच्चों की पढ़ाई को अनिवार्य बनाया है उन्हें उनका हक मिल सकेगा। स्कूल खुला रहने पर शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाए जाएंगे। बिहार में तो वैसे भी शिक्षकों की कमी का रोना हमेशा रोया जाता है। लेकिन नीतीश कुमार ने पहली बार बड़ी संख्या में शिक्षकों की बहाली करके एक बड़ा काम किया! ये अलग बात है कि उनके इस ‘बड़े काम’ की बड़ी आलोचना भी हुई। लेकिन बिहार के सरकारी स्कूलों का ये बड़ा सच है कि शिक्षक ‘सरकारी कार्यों’ के अलावा शिक्षण का काम कम ही करते हैं। उनके लिए स्कूल का खुला होना या नहीं होना कोई मायने नहीं रखता। अगर स्कूल खुला है तो बस हाजिरी लगाने से जिम्मेदारी खत्म हो जाती है, और अगर बंद है तो कोई बात ही नहीं। काम तो उन्हें चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो के लिए चलाए गये अभियानों में ही करना पड़ता है। ऐसे में हाईकोर्ट का ये फैसला शिक्षकों को स्कूलों में कितना टिका सकेगा, ये देखने वाली बात होगी।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

आओ तो, भले पैसा मत देना

पैसा किसे प्यारा नहीं लगता? कोई है जो आती लक्ष्मी को ना कह सके? ऐसे इंसान विरले ही होते हैं। नहीं तो काहे का सादा जीवन और काहे का उच्च विचार? अपने यहां ही देखिए, आज कल यही हो रहा है। विदेश में रहने वाले भारतीयों को पहले तो बुलाया। उनका जमकर स्वागत किया, फिर कहते हैं हमें आपके पैसों से लगाव नहीं है। वो तो हम आपको जमीन से जोड़े रखना चाहते हैं, बस इसलिए। क्यों भइया? क्यों आपने गरीब प्रवासियों को न्यौता नहीं दिया? क्यों आप सिर्फ उद्योगपतियों को ही बुलाते हैं? बार बार कहते हैं पैसा नहीं लगाना तो मत लगाओ, लेकिन अपने बच्चों को घूमने के लिए तो भेजो। पर्यटन उद्योग को चमकाना है क्या? या देश में फैले भ्रष्टाचार की नयी तस्वीर उन्हें भी दिखानी है। जो संसद से सड़क तक पसरा पड़ा है। अगर नहीं, तो क्यों बुला रहे हो गुजरात, बिहार, हरियाणा और पंजाब। पूरा देश कहिए जनाब। सभी अपनी नयी तस्वीर दिखा रहे हैं। लेकिन याद भी दिलाते हैं कि पैसा ना लगाना हो मत लगाओ, लेकिन घूमने तो चलो। ये अजीब जबरदस्ती है। अगर कोई घूमना चाहेगा तो अपने आप आएगा, इतना गिड़गिड़ाना क्यों है भाई? जिनने देश छोड़ दिया, जबरदस्ती उन्हें जड़ों से जोड़े रखने की जिद है। अरे, जो यहां हैं उन्हें तो बचा लो।