सोमवार, 26 दिसंबर 2011

कुछ होने के इंतजार में....

नया साल आने वाला है। हर व्यक्ति बड़े उत्साह से 2012 का इंतजार कर रहा है। सबके अपने सपने हैं। नव वर्ष की पूर्व संध्या के लिए अपनी-अपनी योजनाएं हैं। किसी को शहर से बाहर जाकर नये साल का स्वागत करना है। तो किसी को अपने घर में। किसी को दोस्तों के साथ पार्टी करनी है तो कोई सड़कों पर घूमते हुए उस शाम को सेलिब्रेट करना चाहता है। जितने मन हैं, उतनी योजनाएं हैं। 31 दिसंबर की शाम वातावरण खुशनुमा होगा। मौसम में भी मस्ती होगी। युवा दिल अल्हड़ होने को मचल रहा होगा। बिना दुनिया की परवाह किये प्रेमी युगल गलबहियां डालने का इंतजार कर रहे होंगे। खुमारी सिर पर सवार होने को होगी। खुशी के मौके पर जाम छलकाने वाले दिन ढलने का इंतजार कर रहे होंगे। सब अपनी तैयारियों में जुटे हैं।
2011 का आखिरी सप्ताह बीत रहा है। लेकिन दिल्ली की शान कही जाने वाली मेट्रो न जाने क्यों महिलाओं के लिए असुरक्षित सी लगने लगी है। हालांकि दिल्ली मेट्रो रेल काॅरपोरेशन ने पहला डब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित कर रखा है। इस डब्बे में पुरुषों के चढ़ने पर सख्त मनाही है। जबरन चढ़ने वालों पर कई बार जुर्माना भी लगाया गया है। एनसीआर में तो मनचलों को मुर्गा तक बनाया गया। लेकिन जैसे इतना सब ही काफी नहीं है। रात नौ बजे के बाद इस डब्बे में मनचले, खासतौर पर शोहदे किस्म के लोग देखे जा सकते हैं। जिनसे डर कर महिलाओं को जैसे खुद में ही सिमट कर बैठना पड़ता है। इनमें से कुछ तो नशा करके मेट्रो में सवार होते हैं। अपने आराम के लिए दूसरे की बहन-बेटियों की परेशानी इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। इसलिए ये महिला डब्बे का रूख कर लेते हैं। लेकिन इनके मुहं से आती शराब की गंध और इनकी गंदी नजरें काफी कुछ कह रही होती हैं। कई बार सीआरपीएफ के जवान राजीव चैक या कश्मीरी गेट पर इन्हें महिलाओं के लिए आरक्षित डब्बे से बाहर निकालते भी हैं, लेकिन स्टेशन से ट्रेन के चलते ही ये लोग फिर उसी डब्बे की ओर बढ़ जाते हैं।
पता नहीं क्यों, डीएमआरसी ने मेट्रो ट्रेन में सुरक्षा बलों को रखना बंद कर दिया है। काॅमनवेल्थ खेलों के समय तो पूर्वोत्तर राज्यों से महिला कमांडोज को विशेष रूप से बुलाया गया था। क्या वो अभियान सिर्फ विदेशी मेहमानों को दिखाने के लिए था? या सिर्फ विदेशी महिला मेहमानों की सुरक्षा के लिए था? अपने घर, समाज, राज्य या देश की महिलाओं की सुरक्षा के लिए नहीं? कभी रात में मेट्रो का सफर करके देखिए, दिल्ली की महिलाएं, युवतियां कितनी जिल्लत झेलती हुई सफर करती हैं। ऐसा रोज होता है। लेकिन पता नहीं क्यों, किसी का ध्यान इस पर नहीं जाता। या जाता भी है तो ‘सब चलता है’ को ही परम सत्य मान कर आंखें मूंद ली जाती हैं। मेट्रो को आतंकवादियों का निशाना बनने से रोकने के लिए ही सीआरपीएफ की तैनाती की गयी थी, लेकिन मेट्रो में सफर करने वाली महिलाओं के मन में बैठे आतंक को खत्म करने के लिए दिल्ली सरकार या दिल्ली मेट्रो रेल काॅरपोरेशन क्या कदम उठाएगा? या इसके लिए उस दिन का इंतजार करेगा, जब किसी के साथ अनहोनी हो जाएगी? और दोष फिर देर रात सफर करने वाली महिलाओं और युवतियों पर मढ़ कर सरकार, प्रशासन और पुलिस अपने कर्तव्य का इतिश्री कर लेंगे।
नये साल की जितनी तैयारी युवा मन कर रहा है, उतनी ही तैयारी सुरक्षा एजेंसियों को भी करनी चाहिए। चाहे वो दिल्ली पुलिस हो या मेट्रो में तैनात सीआरपीएफ। या फिर यात्रियों को निर्देशित करने के लिए मेट्रो स्टेशनों पर तैनात निजी सुरक्षाकर्मी। कहीं ऐसा ना हो कि नये साल से पहले किसी ऐसे वाकये का सामना करना पड़े, जिसे थोड़ी सी मुस्तैदी से ही टाला जा सकता है। बाद में अफसोस जताने से अच्छा है कि पहले ही थोड़ी परेशानी उठा ली जाए। और नव वर्ष का स्वागत हंसी-खुशी किया जाए। थोड़ी सख्ती भी दिखानी पड़े तो इसे सहने के लिए युवा मन को तैयार रहना चाहिए।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

भारतीय जेलों का अपमान ?

डेनमार्क से खबर आई है कि पुरूलिया में हथियार गिराने के आरोपी किम डेवी का भारत प्रत्यर्पण नहीं हो सकता। इसलिए नहीं कि कोई कानूनी मजबूरी है, बल्कि इसलिए कि यहां की जेलों की हालत अच्छी नहीं है। यहां की जेलों में कैदियों के मानवाधिकार का ख्याल नहीं रखा जाता है। जी हां, ये कहना है डेनमार्क की हाईकोर्ट का, जिसने इसी आधार पर सीबीआई की याचिका खारिज कर दी। अब कोई कैसे समझाए, कि इस बात से भारतीय जेलों का कितना बड़ा अपमान हुआ है? जिन जेलों को भारतीय मंत्रियों, बड़े बड़े अधिकारियों को रखने का अवसर मिल चुका है, उनमें हथियार गिराने के आरोपी को भेजने से मना कर दिया। ये दुस्साहस नहीं तो और क्या है। गांवों-कस्बों में चले जाइए, हर दूसरे-तीसरे आदमी के पास हथियार मिल जाएगा। लाइसेंस हो या ना हो, ये अलग बात है। तो फिर किम डेवी की क्या औकात? ए. राजा, कनिमोझी, सुरेश कलमाड़ी, लालू प्रसाद यादव, पप्पू यादव, अमरमणि त्रिपाठी पता नहीं कितने राजनेता अपनी जेलों की शोभा बढ़ा चुके हैं। मनु शर्मा, विकास यादव जैसे युवा भी जेलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। अबू सलेम और कसाब जैसे लोग भी अपनी जेलों में सुरक्षित हैं, तो फिर किम डेवी को क्या खतरा हो सकता है? जब हमने अपने लोगों के लिए जेल का मैन्यूअल बदल दिया तो इतना ख्याल तो किम डेवी का भी रखा ही जाएगा। जब साधारण दाल रोटी की जगह इडली, डोसा, सांबर और वड़ा बन सकता है तो किम के लिए नॉन वेज क्यों नहीं बनेगा? उसे दूसरी सुविधाएं क्यों नहीं मिलेंगी? इसलिए डरिए मत भेज दीजिए, क्योंकि दुनिया जानती है कि हम अपने मेहमानों की कितनी खातिरी करते हैं?

सोमवार, 13 जून 2011

इनका क्या कसूर...

चार जून की रात दिल्ली के रामलीला मैदान में दिल्ली पुलिस सत्याग्रह करने वालों पर लाठीचार्ज कर रही थी। आंसू गैस के गोले छोड़ रही थी। बाबा रामदेव के साथ सत्याग्रह कर रही समर्थकों की भीड़ को तितर बितर करने में लगी थी। वहीं दूसरी ओर दिल्ली से करीब तेरह सौ किलोमीटर दूर फारबिसगंज के भजनपुरा गांव में सन्नाटा पसरा था। बिहार के अररिया जिले के इस गांव में पुलिस का खौफ इस कदर छाया हुआ था कि सड़कें सूनसान पड़ी थीं। इस सन्नाटे का दिल्ली में हुए लाठीचार्ज से कोई लेना देना नहीं था। इसके पीछे दूसरी वजह थी। दिल्ली के रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ, वो तो उस घटना के पासंग में भी नहीं ठहरती जो भजनपुरा गांव में हुई थी।
बिहार पुलिस के जवानों ने सड़क पर उतरी भीड़ पर दिनदहाड़े गोलियां बरसाई। नौ या दस महीने के बच्चे सहित पांच लोगों की मौत हो गयी। एक गर्भवती महिला भी पुलिस की बर्बरता की शिकार हुई। नौ साल का सोनू तो अपने रिश्तेदारों के साथ सड़क पर उतर गया था, उसे तो मालूम भी नहीं था कि हो क्या रहा है। इन सबके अलावा बाइस और तेइस साल के दो युवक भी पुलिस की गोली का शिकार बन गये। पुलिसकर्मियों की बर्बरता इतने पर ही नहीं थमी। पुलिसकर्मी इस कदर बौखलाए हुए थे कि जमीन पर बेसुध पड़े युवक को बूट से रौंदा गया। पुलिस वाले ने उसके हाथों पर बार बार छलांग लगाई। युवक इतना बेसुध था कि दर्द होने पर प्रतिक्रिया भी नहीं कर पा रहा था। ये बिहार पुलिस की नृशंसता की हद थी।
गांववालों की मानें तो पुलिस की इस दरिंदगी पीछे राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का हाथ है। दरअसल, भजनपुरा गांव में एक स्टार्च कंपनी बननी है। गांववालों की मानें तो इसे बनाने वाली ऑरो सुंदरम इंटरनेशलन कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर सौरभ अग्रवाल के पिता अशोक अग्रवाल और मोदी करीबी हैं। अशोक अग्रवाल बीजेपी के नेता भी हैं, सो उन्हें फायदा पहुंचाने के मकसद से मोदी साहब घटना से महज चार दिन पहले उनतीस मई को फारबिसगंज भी गये थे, जहां उन्होंने स्थानीय प्रशासन पर स्टार्च कंपनी लगाने में सहयोग करने के मकसद से भजनपुरा गांव जाने वाली सड़क को बंद करने का दबाव डाला था। जब उपमुख्यमंत्री ही कह रहा हो तो अधिकारी मना भी कैसे कर सकते थे,... उन्होंने मौखिक आदेश का पालन किया और सड़क बंद कर दी।
जिसके बाद लोगों के पास कोई रास्ता नहीं बचा था। वे सड़क पर उतर आए, और रास्ता बंद करने के लिए प्रशासन ने जो कुछ किया था, उसे उखाड़ फेंका। जिसके बाद बिहार पुलिस ने अपनी बंदूकों का मुंह खोल दिया, जिसने भीड़ में ना तो किसी का नाम देखा, ना उम्र और ना ही लिंग भेद किया। कुछ ही मिनटों में भीड़ तितर बितर हो गयी और पुलिस के खाते में जुड़ गयी पांच लाशें।
दिल्ली पुलिस ने सरकार के खिलाफ सत्याग्रह करने वालों पर लाठियां बरसाई, तो बीजेपी ने मोर्चा खोल दिया, लेकिन अब जबकि खुद बिहार बीजेपी के बड़े नेता आरोपों के घेरे में हैं, राज्य पुलिस पर सवालिया निशान लग रहा है, तब कोई कुछ नहीं कह रहा। भजनुपरा गांव के लोग ना तो किसी काले धन को वापस लाने की मांग कर रहे थे और ना ही भ्रष्टाचार मिटाने की। उनकी तो बस यही मांग थी कि उनके गांव को मुख्य सड़क से जोड़ने वाली सड़क बंद ना की जाए। लेकिन प्रशासन पर ऊपर से दबाव था। उनके पास कोई विकल्प नहीं था, सो उन्होंने रास्ता बंद कर दिया, ये सोचे बगैर कि गांव वाले कैसे आना जाना करेंगे।
इस बात का खुलासा तब हुआ, जब स्थानीय चैनलों ने मामले को दिखाना शुरू किया। इसके बाद तो राज्य सरकार और पुलिस के खिलाफ कमजोर विपक्ष ने मोर्चा खोल दिया। कांग्रेस भी शामिल हुई। लेकिन ये सिर्फ शोशेबाजी है और कुछ नहीं। जिस प्रकार दिल्ली में हुए लाठीचार्ज को बीजेपी ने हाथोंहाथ लिया था, उसी तरह बिहार में दूसरे दलों की तरह कांग्रेस भी कोशिश कर रही है, लेकिन आधार कमजोर है, सो कुछ कर नहीं पा रही।
बहरहाल, चीन जाने से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं, और इसकी रिपोर्ट का इंतजार है। बिहार में सुशासन का नारा देने वाली सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि दो हजार दस तक करीब सैंतालिस हजार से ज्यादा अपराधियों को सजा मिली है। सरकार कहती है कि अब लोग अपराधियों से नहीं डरते, बल्कि अपराधी कानून से डरते हैं। लेकिन फारबिसगंज के भजनपुरा में हुई घटनाएं एक बार फिर वर्दी वालों को गुंडा साबित करती हैं, जिनके पीछे खाकी भी उतनी ही मुस्तैदी से जमी हुई है।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

बिहार, विकास और बीपीएल परिवार

बिहार में विकास की बयार बह रही है। विधानसभा चुनाव से पहले सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता कहते नहीं अघाते थे कि बिहार विकास कर रहा है। खूब विकास कर रहाहै। 2008-09 में 11.44 प्रतिशत की दर से सकल घरेलु उत्पाद में वृद्धि के साथ ही बिहार गुजरात के बाद देश में दूसरे नंबर का राज्य हो गया है। खूब प्रचार कियागया, राजग ने विधानसभा चुनाव भी जीत लिया, भारी बहुमत से। विपक्षी दलों ने मुंह की खाई। जदयू और बीजेपी के साथ-साथ जनता ने भी कहा कि सुशासन बाबूके राज में सड़कें तो मिली हीं, सुरक्षा का आश्वासन भी मिला। राज्य में जिस रफ्तार से सड़कों का निर्माण हुआ, उससे जनता को विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा भी होसकता था, लेकिन नीतीश कुमार ने कर दिखाया। बिहार विकास कर रहा है, सबने देखा, जो समझाया गया समझा और मान लिया। सूबे के विकास की वजह सेमुख्यमंत्री महोदय को सम्मानित भी किया गया। सूबे में विकास की गाथा गाते-गाते नहीं थकने वाले नेताओं ने भी जहां मौका पाया, अपना और अपने मुखिया कीतारीफ में कसीदे पढ़े। लेकिन कहते हैं ना, कि विकास तो हो लेकिन विनाश की शर्त पर ना हो, क्योंकि जब भी विनाश की शर्त पर विकास होगा, मामला बिगड़जाएगा।

एक तरफ गरीबी बढ़े और दूसरी तरफ विकास का सूचकांक भी उपर चढ़ता रहे, तो फिर मान लीजिए कि दाल में कुछ तो काला है! ऐसा ही हुआ हैबिहार में भी। ये कोई छुपी हुई या मनगढ़ंत बात नहीं है, बल्कि बिहार सरकार के ही एक मंत्री का विधानसभा में दिया गया बयान है। ग्रामीण विकास मंत्री नीतीशमिश्र ने सदन में प्रश्नकाल के दौरान एक सवाल के जवाब में कहा कि बिहार में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ रही है। यानी जिस राजग सरकार मेंविकास हुआ है, उसी सरकार ने राज्य के कुछ और लाख लोगों को गरीबी रेखा से नीचे पहुंचा दिया है। 2007 सात में जहां बीपीएल परिवारों की संख्या 1 करोड़, 13लाख, 40 हजार, 990 थी, वहीं दो साल बाद, 2009 में ये संख्या 1 करोड़, 26 लाख, 61 हजार, 632 हो गयी। मतलब सिर्फ दो साल में करीब तेरह लाख बीस हजार परिवार गरीबी रेखा से नीचे पहुंच गये। यानी हर दिन अठारह सौ से ज्यादा परिवार और गरीब हो गये। ये वे दो साल थे जब सूबे की जीडीपी छलांग लगा रही थी, जबबिहार विकास के मामले में देश का दूसरा राज्य बन गया था।

हालांकि सरकार का बचाव करते हुए उन्होंने जो वजह बताई, वो ये थी कि राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं का लाभ उठाने के लिएबीपीएल परिवार टूटे हैं, ताकि योजनाओं का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाया जा सके। बहरहाल, चर्चाएं हो रही हैं। कहीं दबी जुबान तो कहीं खुलेआम। विकास के साथसाथ बीपीएल परिवारों की संख्या में इजाफा होना सवाल तो खड़े करता ही है। विकास का द्योतक बनी सड़कें हाथी के दांत तो नहीं ?

शनिवार, 12 मार्च 2011

जापान में भूकंप-सुनामी

जापान में भुकंप-सुनामी
सिर्फ त्रासदी ही नहीं,
यह पुकार है प्रकृति की, उन स्वार्थी स्वर्ण पुतलों के प्रति
जो अपनी धन लिप्सा की खातिर
तबाह कर रहे हैं प्रकृति को।
अरे, लालची लोगों,
प्रकृति से डरो,
कुछ तो खौफ खाओ
कल जो कुछ वहां हुआ,
तुम्हारे यहां भी हो सकता है!
और प्रकृति ने क्या हाल किया है?
देखो -
गौर से देखो।
मत लड़ो प्रकृति से,
अगर कुछ कर सकते हो,
तो मदद करो उन पीड़ितों की,
जो अपना सर्वस्व गंवा चुके हैं।
मैं को छोड़ो,
हम कहो-
फिर देखना,
जीने का अलग ही आनन्द होगा,
हर सुबह दिनकर नये उत्साह से उदित होगा,
और तुम्हें भी सुकुन मिलेगा
सुकुन मिलेगा
सुकुन मिलेगा।

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

हम कब सम्मानित होंगे?

सम्मानित होना और सम्मानित करना अपने आप में सम्मान की बात है। लेकिन कभी-कभी ये सम्मान कम और अपमान ज्यादा लगने लगता है। नहीं, नहीं। सम्मानितों का अपमान नहीं! जो सम्मानित नहीं हुए उनका अपमान। देखिए, अभी गणतंत्र दिवस पर देश के 128 शूरवीरों को पद्म सम्मान देने की घोषणा की गयी। तो उनकी त्योंरियां चढ़ गयीं, जो इस विस्तृत लिस्ट में जगह नहीं बना सके। विस्तृत इसलिए क्योंकि सरकार हर साल 120 लोगों को ही पद्म सम्मान देती है। बहरहाल, ये उनका सिरदर्द है कि कितनों को सम्मान देती है। हम तो ये बता रहे थे कि उन लोगों की त्योरियां चढ़ गयी जिन्हें ये सम्मान नहीं मिले। ना जी ना! प्रियंका चोपड़ा का नाम तो हम बिलकुल भी नहीं ले रहे, जिनका नाम टैक्स चुराने की वजह से कट गया। वो तो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की ब्रांड अंबेसडर भी रहीं हैं। उनका नाम कैसे आ सकता है? उनका तो गलती से कट गया होगा!
आपने पद्म पुरस्कार पाने वालों की लिस्ट देखी क्या? सभी बड़े आदमी हैं। धनकुबेर कहिए। कईयों की तो अपनी बड़ी से बड़ी फैक्ट्रियां हैं तो कुछ बड़ी कंपनियों की देखरेख करते हैं। और तो और, विदेश में बस चुके लोगों को भी सरकार ने सम्मानित करने का फैसला किया है। इसे छोड़िए, लिस्ट तो कहीं भी मिल जाएगी। हम तो ये कह रहे हैं कि दुख उनको हुआ है, जो पैसेवाले नहीं हैं। जो गरीब हैं। जो किसी अधिकारी को नहीं पहचानते थे, जो पैरवी नहीं करवा सकते थे। इसके बावजूद जो देश का भार अपने कंधे पर उठाए हुए हैं। जिनके भरोसे इन धनकुबेरों को रोटी खाने को मिलती है। दरअसल वे लोग सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए ही पैदा हुए हैं, या फिर आत्महत्या करने के लिए। लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है कि पद्म पाने वाले में कोई किसान है या नहीं? कोई आम आदमी है या नहीं? वैसे भी इन्हें पूछता कौन है? हम तो कहते हैं कि किसानों को भी अपनी उपज की कीमत बढ़ा देनी चाहिए। फिर भले बढ़ती हो महंगाई तो बढ़ा करे। थोड़े पैसे आएंगे तो अमीरों की लिस्ट में तो शामिल होंगे। फिर पद्म पुरस्कार मिलने का चांस बढ़ जाएगा। करनी चाहिए। थोड़ी-बहुत कोशिश तो जरूर करनी चाहिए। कैसा हो अगर गेंहू एक हजार रूपये किलो और चावल पंद्रह सौ रूपये प्रति किलो मिलने लगे। आपकी जेब भले कटेगी लेकिन गरीब किसानों की उम्मीद तो बढ़ जाएगी। जैसे प्याज ने कुछ अमीर लोगों को और अमीर बना दिया उसी तरह गेहूं और चावल भी किसानों की कुछ नैया पार लगा देंगे। गरीबों का भला हो जाएगा!
अपने देश में सम्मानित करने और सम्मानित होने की एक अजब परम्परा रही है। अजब इसलिए कि कौन सम्मानित होगा और कौन सम्मानित करेगा, इसे लेकर एक बहस हमेशा से चलती रही है। पिछले साल दुनिया जीत कर आए पहलवान सुशील के साथ फोटो खिंचवाने से पहले तब खेल मंत्री रहे एम.एस. गिल ने उनके गुरू महाबली सतपाल को किनारे करवा दिया। उनके साथ फोटो ही नहीं खिंचवाई! साइना के कोच पुलेला गोपीचंद को पहचान ही नहीं पाए। गौर से देखिए, तो सम्मान और अपमान के बीच बहुत ही बारीक लाइन बन जाती है अपने यहां।
साहित्य और कला के क्षेत्र में तो हालत और ज्यादा खराब है। कभी सम्मानित होने वाले नखरे दिखाने लगते हैं तो कभी किसी को सम्मानित होता देखकर दूसरों के पेट में मरोड़ उठने लगती है। दरअसल ये सम्मान शब्द ही विवादास्पद होता जा रहा है। कई बार लगता है कि सम्मान देकर कहीं अपमानित तो नहीं किया जा रहा? यकीन मानिए, कई बार ऐसा होता है। तमाम अकादमियां इस तरह के उदाहरण पेश कर चुकी हैं।

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

क्या अब बदलेगी स्कूलों की तकदीर

.. बीसवीं सदी के आखिरी दशक की शुरुआत थी। बिहार के सरकारी स्कूलों में बच्चे नहीं दिखाई देते थे। तब लालू प्रसाद यादव ने चरवाहा विद्यालय जैसी शुरुआत की थी। असर भी हुआ। बच्चों को खाने के साथ साथ रूपये भी मिलते थे। बच्चों की संख्या बढ़ने लगी थी। समय तेजी से बदला। शहरवासियों के साथ साथ ग्रामीणों की सोच में भी बदलाव आया। बच्चों को पढ़ाने को प्राथमिकता दी जाने लगी। चाहे पेट काटकर ही सही, गरीब से गरीब किसान भी बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचने लगा। बच्चे स्कूल जाने लगे। जो प्राइवेट स्कूलों में नहीं भेज सकते थे, उन्होंने सरकारी स्कूलों की ही शरण ली। लेकिन सरकारी तंत्र और इसकी कार्यप्रणाली अपनी ही बनाई लीक पर चलती है। पहले स्कूलों में बच्चे नहीं थे, तो कोई बात नहीं थी, लेकिन जब बच्चे आए तो पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिले। उनके पास दूसरे भी काम थे। ट¬ूशन लेना, खेती-बाड़ी करना, साथ-साथ राशन की दुकान भी चलाना। यानी नौकरी के अलावा दूसरे पार्ट टाइम जॉब थे, जिसमें वे व्यस्त रहते। स्कूल जाकर हाजिरी लगाने के बाद स्कूल और देश के भविष्य के प्रति उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती थी। लेकिन थे तो सरकारी नौकर ही। इसलिए सरकारी काम भी करने होते थे। चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो जैसे कितने ही अभियान इन स्कूलों के शिक्षकों के भरोसे ही चलते हैं। लेकिन पिछले दिनों पटना हाई कोर्ट के फैसले से उम्मीद है कि एक बार फिर देश का भविष्य उन्हीं प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालयों में निखरेगा, जहां पढ़ाई को दोयम दर्जे का काम समझा जाता था। कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान फैसला दिया है कि अब प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को अध्ययन-अध्यापन के समय में गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। यानी जब स्कूल खुले हों तो पढ़ाई को बाधित कर शिक्षकों को चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो या ऐसी अन्य जिम्मेदारियां नहीं दी जाएंगी। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने भी संत मैरी बनाम एमसीडी मामले का हवाला देते हुए प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों में प्रतिनियुक्ति करने पर रोक लगाई थी। यानी अब उम्मीद की जा सकती है कि संविधान ने जिन छह से चौदह साल तक के बच्चों की पढ़ाई को अनिवार्य बनाया है उन्हें उनका हक मिल सकेगा। स्कूल खुला रहने पर शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाए जाएंगे। बिहार में तो वैसे भी शिक्षकों की कमी का रोना हमेशा रोया जाता है। लेकिन नीतीश कुमार ने पहली बार बड़ी संख्या में शिक्षकों की बहाली करके एक बड़ा काम किया! ये अलग बात है कि उनके इस ‘बड़े काम’ की बड़ी आलोचना भी हुई। लेकिन बिहार के सरकारी स्कूलों का ये बड़ा सच है कि शिक्षक ‘सरकारी कार्यों’ के अलावा शिक्षण का काम कम ही करते हैं। उनके लिए स्कूल का खुला होना या नहीं होना कोई मायने नहीं रखता। अगर स्कूल खुला है तो बस हाजिरी लगाने से जिम्मेदारी खत्म हो जाती है, और अगर बंद है तो कोई बात ही नहीं। काम तो उन्हें चुनाव कार्य, जनगणना, पल्स पोलियो के लिए चलाए गये अभियानों में ही करना पड़ता है। ऐसे में हाईकोर्ट का ये फैसला शिक्षकों को स्कूलों में कितना टिका सकेगा, ये देखने वाली बात होगी।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

आओ तो, भले पैसा मत देना

पैसा किसे प्यारा नहीं लगता? कोई है जो आती लक्ष्मी को ना कह सके? ऐसे इंसान विरले ही होते हैं। नहीं तो काहे का सादा जीवन और काहे का उच्च विचार? अपने यहां ही देखिए, आज कल यही हो रहा है। विदेश में रहने वाले भारतीयों को पहले तो बुलाया। उनका जमकर स्वागत किया, फिर कहते हैं हमें आपके पैसों से लगाव नहीं है। वो तो हम आपको जमीन से जोड़े रखना चाहते हैं, बस इसलिए। क्यों भइया? क्यों आपने गरीब प्रवासियों को न्यौता नहीं दिया? क्यों आप सिर्फ उद्योगपतियों को ही बुलाते हैं? बार बार कहते हैं पैसा नहीं लगाना तो मत लगाओ, लेकिन अपने बच्चों को घूमने के लिए तो भेजो। पर्यटन उद्योग को चमकाना है क्या? या देश में फैले भ्रष्टाचार की नयी तस्वीर उन्हें भी दिखानी है। जो संसद से सड़क तक पसरा पड़ा है। अगर नहीं, तो क्यों बुला रहे हो गुजरात, बिहार, हरियाणा और पंजाब। पूरा देश कहिए जनाब। सभी अपनी नयी तस्वीर दिखा रहे हैं। लेकिन याद भी दिलाते हैं कि पैसा ना लगाना हो मत लगाओ, लेकिन घूमने तो चलो। ये अजीब जबरदस्ती है। अगर कोई घूमना चाहेगा तो अपने आप आएगा, इतना गिड़गिड़ाना क्यों है भाई? जिनने देश छोड़ दिया, जबरदस्ती उन्हें जड़ों से जोड़े रखने की जिद है। अरे, जो यहां हैं उन्हें तो बचा लो।