सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

दिल्ली, दुनिया और ग्रामीण संस्कृति

तीन अक्टूबर की रात, पूरी दुनिया ने दिल्ली को एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनते हुए देखा। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स की ओपनिंग सेरेमनी में दुनिया ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति की झलक देखी। हम दुनिया से बाहर नहीं, सो हम भी सरकारी टीवी पर दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय बनने के गवाह बने। राष्ट्रगीत से शुरू हुआ कार्यक्रम करीब तीन घंटे के सांस्कृतिक प्रस्तुतियों और दुनिया भर से आए करीब सात हजार खिलाड़ियों की परेड के बाद ऑस्कर विजेजा अल्लारक्खा रहमान के कॉमनवेल्थ थीम सॉंग के साथ खत्म हुआ। देश के कई राज्यों से आए कलाकारों ने अपनी लोककलाओं और नृत्य का प्रस्तुतिकरण करके मन मोह लिया। लेकिन जब ट्रेन की शक्ल में झांकियां आईं तो मन खट्टा हो गया। एनांउसर कह रहा था भारत की ग्रामीण संस्कृति की झलक पेश की जा रही है। और ये सही भी था। वाकई उद्घाटन समारोह के दौरान दिखाई जाने वाली झांकियां हमारे देश की संस्कृति की ही प्रतिरूप थीं, जिनमें लोहार, मजदूर, नेता, रिक्शे वाले, सभी अपना अपना योगदान दे रहे थे। ये देखते हुए ही ख्याल आया कि जिन चीजों को हम ग्रामीण भारतीय संस्कृति कह कर दिखा रहे हैं, उन्हें ही दिल्ली से क्यों गायब कर दिया गया? क्या ये सिर्फ झांकियों में दिखाने के लिए रह गये हैं, या फिर मांज कर, चमकाकर दिखाने की चीज बन गये हैं? मन में सवाल उठा- क्यों साउथ दिल्ली की सड़कों पर रिक्शे वाले नहीं दिख रहे? झांकी देखकर खुद ही जवाब दिया- क्योंकि वे जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में आ गये हैं। अब खेलों के दौरान आने वाले मेहमान देश की ग्रामीण संस्कृति से हकीकत में भले ही रूबरू ना हो सकें, लेकिन आयोजन समिति ने स्टेडियम में ही उन्हें दिखाकर कुछ तो दिखला ही दिया। दूसरा सवाल आया- क्यों सड़क किनारे पटरी पर मेहनत करके जीवन यापन करने वालों को हटा दिया गया? क्या कॉमनवेल्थ के गरिमामयी उद्घाटन से ही उनकी रोजी रोटी चल जाएगी? इस सवाल का जवाब झांकी देखने पर नहीं मिला। क्योंकि तीन अक्टूबर को ना तो सड़क किनारे ही वे लोग दिखाई दिये, और ना ही स्टेडियम में। ‘देश की इज्जत का सवाल’ था, इसलिए मन ने कहा- चलो सब ठीक है। जाने दो। लेकिन जब ये कार्यक्रम चल रहा था तभी गांव से मां का फोन आया- हाल चाल लिया। बैकग्राउंड से बाबू जी की आवाज सुनाई दी, दिल्ली में खेल होने वाला है? मैंने मां से कहा- नेशनल टीवी चैनल पर आ रहा है, लगाकर दिखा दो। मां ने मायूसी भरा जवाब दिया- बिजली तो रात के बारह बजे आएगी। एक तरफ तो दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स का भव्य आयोजन करके देश का नाम दुनिया में बढ़ाया जा रहा है, दूसरी तरफ मेरे गांव जैसे ही हजारों लाखों गांव अंधेरे के साये में जी रहे हैं। आज से करीब पचास साल पहले राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था- ‘पूरे देश में अंधेरा और दिल्ली में उजियाला है... जिस देश को गांवों का देश कहा जाता है, उसके गांवों की ऐसी हालत पर नेताओं की समझ पर तरस खाने को दिल करता है जिनकी हकीकत भी राष्ट्रमंडल खेलों की ग्रामीण संस्कृति की झलक दिखाने वाली झांकियों में शामिल की गयी थी। आजादी से लेकर आज तक इस देश के गांवों की हालत नहीं सुधर सकी है, किसी चीज में सुधार आया है तो सिर्फ सेंसेक्स में, अमीरों की अमीरी में और गरीबों की गरीबों में। अमीरी भी बढ़ रही है और उसी अनुपात में गरीबी भी।