रविवार, 28 जून 2009

जब कभी बेचैन होता हूं,

अकेले में गमगीन होता हूँ,

तब मुझे याद आती हो

तुम।

दिन तो फ़िर भी कट जाता है,

रात नही कटने पाती है,

फ़िर तो मेरे सिरहाने में

आ जाती हो

तुम।

यूँ ही तारे गिनते गिनते,

खुली आँख ही सपने बुनते,

सपनो में मुस्काती हो,

मुझे सारी रात जगाती हो,

तुम।

देखता हूँ तुमको हरदम,

हरवक्त मेरे पास हो तुम,

सपना हो या,

सच हो मगर,

एक सुखद एहसास हो

तुम।

गुरुवार, 25 जून 2009

कौन मानता है?

मेरे मित्र हैं, असम यूनिवर्सिटी में पढाते हैं, उनसे puch कर उनकी एक कविता डालरहा हूँ, पढिये और सोचिये, क्या हम भी ऐसे ही नहीं हो गए हैं?

आने पर दादी ने कहा

मेरी पोथी तो देना

मैंने कहा-

अभी जा रहा हूँ सुनने

परिवार की अवधारणा पर

एक व्याख्यान,

आने पर दूंगा।

उनका ब्लॉग है...

http://www.bavraaheri.blogspot.com/

गुरुवार, 18 जून 2009

ये विज्ञापन का नया अंदाज है...

ये विज्ञापन का जमाना है। जिसके बिना आज माल बेचना मुमकिन ही नहीं लगता। हर उपभोक्ता वस्तु का जोर शोर से विज्ञापन किया जाता है। कुछ भी इससे अछूता नहीं है। खाने की चीजें हो, नहाने की हो, पहनने की हो, खेलने की हो, सवारी की हो, माल ढोने वाली गाड़ी की हो या फिर घर बनाने के सामान की हो। हर चीज बेचने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है। ये गलत भी नहीं है। खासतौर से तब जब समाज उत्तर आधुनिक हो चुका है, जब लोगबाग टीवी, रेडियो, अखबारों या मीडिया के दूसरे माध्यमों से विज्ञापन देखकर ही अपनी जरूरतें तय करते हैं। या फिर उन पर मिलने वाली छूट देखकर ही सामान की जरूरत बढ़ाते और कम करते हैं। ऐसे में विज्ञापन जरूरी हैं। लेकिन विज्ञापन का मकसद क्या सिर्फ उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद की ओर आकर्षित करना भर है? माल बेचना भर है? क्या कंपनियों का इससे कोई वास्ता नहीं कि उनके विज्ञापनों से समाज पर क्या असर पड़ रहा है। लगता है, कुछ कंपनियों को है, और कुछ को नहीं है। या यूं कहिए कि कुछ कंपनियां अपने माल को आपकी सहानुभूति पाकर बेचना चाहती हैं, तो कुछ कंपनियां बेसिर-पैर की उटपटांग हरकतें दिखाकर। आपको ये बातें उल-जुलूल सी लग सकती हैं, क्योंकि आपने अपने टीवी पर इन विज्ञापनों को देखा तो है, उन पर गौर नहीं किया है। दो विज्ञापन एक साथ लीजिए। पहला तो है अंबूजा सीमेंट का, जिसमें एक ही परिवार में झगड़े के बाद दीवार खड़ी कर दी जाती है, और जब मौका आता है, तब इस खास सीमेंट से बनी दीवार टूटती ही नहीं। आखिर ‘अंबूजा सीमेंट’ से बनी दीवार जो है। दूसरा विज्ञापन है बिजली के तार का। कंपनी है हेवेल्स। इस विज्ञापन में एक छोटा सा लड़का अपनी मां को हाथ से आग पर रोटी सेंकते देखता है तो उसे तकलीफ होती है और वो इस कंपनी के तार को मोड़कर चिमटा बना लाता है, जिसे देखकर उसकी मां के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। अब दोनों विज्ञापनों का मर्म समझने की कोशिश कीजिए। पहले में जहां सीमेंट की वजह से दो भाईयों को परिवार चाह कर भी नहीं मिल पाता वहीं दूसरे विज्ञापन में बेटे से मां का दर्द देखा नहीं जाता और वो जुगाड़ तकनीक लगाकर अपनी मां को आराम पहुंचाता है। ये विज्ञापन आपको प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी की अनायास याद दिला जाता है, जिसमें छोटे से हामिद को उसकी दादी मेला घूमने के लिए चार आने देती है, और दूसरे बच्चे जहां मिट्टी के खिलौने खरीदते हैं, वहीं हामिद को याद आता है कि रोटी बनाते समय उसकी दादी के हाथ जल जाते हैं, इसलिए वो अपने पैसों से खिलौनों की जगह दादी के लिए चिमटा खरीद लेता है, और बच्चों को अपने हिसाब से उसका महत्व बताकर सबका हीरो भी बन जाता है। इन लाइनों का मकसद कहानी सुनाना नहीं है, बल्कि करीब करीब सौ साल पहले लिखी गई एक कहानी को आज के यथार्थ में देखना सुखद अनुभूति देता है (छोटे परदे पर ही सही।) क्योंकि एक तरफ ऐसी मजबूत सीमेंट है जो ईंटों में ऐसा जोड़ लगाती है कि दीवार नहीं टूटने देती, भले ही टूटे हुए रिश्ते जोड़ने में नाकाम हो, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा विज्ञापन भी है जो करंट के प्रवाह के लिए माध्यम तो जोड़ता ही है, रिश्तों को और भी प्रगाढ़ करता दिखाई देता है। गौर करने की बात है कि सीमेंट के दूसरे ब्रांड भी विज्ञापन करते हैं, लेकिन वे विकास को दिखाते हैं, उन बांधों को दिखाते हैं, जहां से हमें उपयोगी बिजली मिलती है। और तार का विज्ञापन दूसरे सीमेंट के विज्ञापनों की अगली कड़ी महसूस होता है। ऐसे में हमें ठहरकर थोड़ा सोचने की जरूरत है कि नकारात्मक सोच बनाने वाले विज्ञापन कितना कारगर हो पाएंगे, या फिर समाज में किस तरह की मानसिकता का निर्माण करेंगे?

सोमवार, 8 जून 2009

4. पत्रकार परांठें वाला?

पत्रकार परांठें वाला चर्चित हो रहा है। पाठक पूरी सक्रियता से उनका मनोबल बढ़ाने में लगे हैं। उनके पाठक उनके करीब तीन साल पुराने सपने को साकार होते हुए देखना चाहते हैं। उनके जिन पाठकों ने अब तक उन्हें चिट़ठी लिखी है वे सभी पेशे से पत्रकार हैं, लेकिन विडंबना है कि वे सभी परेशान भी हैं, और अब वे भी अपने पेषे का कोई विकल्प चाहते हैं। सभी पत्रकार पाठकों ने उनसे परांठें की दुकान खोलने के विचार को मूर्त रूप में साकार करने का निवेदन किया है। कुछ उनके काम में हाथ बंटाने को इच्छुक हैं तो कुछ उनके ग्राहक बनने को। परांठें वाले पत्रकार महोदय के पत्रकार पाठकों में से एक ने तो उनसे मैन्यू कार्ड भी बताने को कहा है, ताकि वे अभी से ही उन परांठों का स्वाद ले सकें, जो अभी भविश्य के गर्भ में ही हैं। वे कब मूर्त रूप लेंगे ये मालूम नहीं है। खैर, सहृदय पाठकों का आग्रह कभी तो उन्हें झकझोरेगा, कभी तो उनकी आत्मा भी जागेगी और जब ऐसा होगा वे अपने पाठकों को अपने परांठों का स्वाद चखाएंगें। फिलहाल तो उन्होंने अपने पाठक के विनम्र आग्रह पर अपने परांठों का मैन्यू कार्ड भेज दिया है। और इसे अपने इलाके में षेयर करने को कहा है। तो पाठकों की मांग और परांठें वाले पत्रकार की इच्छा पर ये मैन्यू दिया जा रहा है -
१- सतू परांठा - 20 रू. ( मैन्यू में सतू परांठें को पहला स्थान दिया गया है। दरअसल, सतू को बिहार का हाॅर्लिक्स भी कहा जाता है और ये चने से बनता है। बिहार में सतू का इस्तेमाल कई रूप में किया जाता है। जैसे दिल्ली वाले फास्ट फूड के दीवाने हैं, कुछ उसी तरह की दीवानगी बिहारवासियों में सतू के लिए होती है। तो उनकी जेब को ही देखते हुए इसकी कीमत बीस रूपए रखी गई है। मात्रा बढ़ने पर डिस्काउंट मिल सकता है।)
२- आलू परांठा - 15 रू. ( परांठें वाले पत्रकार महोदय के मैन्यू में दूसरे नंबर हैं आलू परांठा। चूंकि आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है तो स्वाभाविक है कि इसकी खपत भी ज्यादा होगी, लिहाजा इसकी कम कीमत और भरपूर खपत को देखते हुए आलू परांठें की कीमत पंद्रह रू. रखी गई है। वैसे भी दिल्ली में आलू परांठें चाहे जहां भी बिक रहा हो, जोर शोर से और डंके की चोट पर बिकता है।)
३- पनीर परांठा- 40 रू. ( आलू के बाद तीसरे नंबर पर है पनीर परांठा। राजधानी में जितनी खपत आलू परांठों की है उससे कम खपत पनीर परांठों की भी नहीं है, बल्कि ये कहें कि पनीर परांठों की मांग ज्यादा है तो गलत नहीं होगा। चूंकि पनीर महंगा है, और इस परांठे में लागत ज्यादा आती है तो परांठें वाले पत्रकार महोदय ने इसकी कीमत ग्राहकों की जेब देखकर ही रखी है, क्योंकि पनीर परांठें खाने की इच्छा रखने वाले छोटे मोटे आसामी तो होंगे नहीं। )
४- प्याज परांठा- 25 रू. (राजधानी में आलू और पनीर परांठों के बाद अगर किसी और चीज के परांठें की मांग है तो वो है प्याज परांठे की। ऐसे में अपने भाई ने प्याज परांठें को भी मैन्यू में षामिल किया है। हालांकि ये चैथे नंबर है। अब उन्होंने अपने बिहार वासियों के लिए थोड़ी सी छूट मांगी थी कि सतू परांठें को पहले नंबर पर रखा जाए। सो उनकी मांग को ध्यान में रखते हुए उन्हें ये जगह दी गई है।)
५- मिक्स वेज परांठा- कीमत... सब्जियों के रेट के हिसाब से। (परांठे वाले पत्रकार बंधु ने ये नया आईटम अपने मैन्यू में षामिल किया है। इसमें मौसमी सब्जियों को तरजीह दी जाएगी और कई सब्जियां शामिल कर परांठे बनाए जाएंगे। और इस परांठे की कीमत सब्जियों की कीमत के आधार पर तय की जाएगी।)
फिलहाल उन्होंने पांच तरह के परांठों की लिस्ट भेजी है। उन्होंने कहा कि उनके पास और भी आईटम है, लेकिन वो धीरे-धीरे सामने लाएंगे। और हां, मांसाहार करने वालों को भी निराष होने की जरूरत नहीं है। उनके लिए भी बहुत कुछ है, लेकिन वो अगली बार.....

शनिवार, 6 जून 2009

मेरा वक्त और तुम्हारी राय

परांठें वाले पत्रकार बंधु इन दिनों थोड़े परेशान हैं। उनके साथ दिक्कत ये भी है कि उनकी परेशानी उनके चेहरे पर दिखने लगती है। हालांकि उनके आॅफिस में कुछ ही लोग इसे भांप पाते हैं, लेकिन हकीकत यही है कि आजकल वे परेशान हैं। दरअसल उसकी एक वजह भी है। जिन चार पत्रकारों ने मिलकर परांठें की योजना पर अमल शुरू किया था, उनमें से एक पत्रकार भाई उस ग्रुप से पीछे हट गया है। वो शायद पत्रकारिता ही करना चाहता है। असल में उसे पत्रकारिता का कीड़ा काट गया है। वे स्थानीय खबरों में रूचि ही नहीं लेते, जितनी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खबरों में। तो परांठें वाले पत्रकार के लिए थोड़ी परेशानी जरूर हो गई है। हालांकि कुछ नये लोग जरूर शामिल होना चाहते हैं, लेकिन जब पुराने ही छिटक रहे हैं तो नये पर कैसे भरोसा किया जाए।
आजकल परांठें वाले पत्रकार बंधु की जेब फिर से गरम हो गई है। तो उन्हें भी गर्मी ज्यादा लगने लगी है। वे भी अक्सर कहीं न कहीं आराम करते हुए पाए जाते हैं। जब उनसे परांठें वाली योजना के बारे में पूछो तो अनमना सा उत्तर देते हैं- ‘वो तो करेंगे ही, बस टाईम का इंतजार है।’ अब ये तो वही जानते हैं या फिर भगवान जानता है कि उनका ये टाईम कब आने वाला है?
हालांकि कई बार उनकी बातों से संशय भी होता है कि वे परांठें लगाएंगे या नहीं। क्योंकि कई लोग उन्हें ये राय दे चुके हैं, संभल कर करना। नौकरी मत छोड़ना। नौकरी के अलावा कर सको, तो ठीक है। ऐसे में कैसे होगा। आखिर में परेशान होकर अपने इलाके में चले आए। कहा- यार, अपने पाठकों से ही एक सर्वे करवा लो, क्या करना चाहिए? ऐसे में मैंने तो अपने एक मित्र की पंसदीदा लाइनें उन्हें सुना दी। आप भी गौर फरमाइए-
हाथ भी नहीं मिलाएगा कोई/ जो गले लगोगे तपाक से
नये मिजाज का शहर है/ फासले से मिला करो
इसका जवाब जैसे वे घर से ही सोच कर आए थे। चार तथाकथित पत्रकारों में एक बंधु ये दो लाइनें अक्सर बोलते सुने जाते हैं, उन्होंने भी उनकी वही लाइनें मुझ पर चिपका दी-
तुम मेरे बारे में कोई राय मत कायम करना
मेरा वक्त बदल जाएगा, तुम्हारी राय बदल जाएगी।
तो सवाल आपके सामने है। जैसा मूड हो, उत्तर दीजिए। जैसी बन पड़े टिप्पणी कीजिए। आपके जवाब से ही कोई पत्रकार अकाल मौत मरने से बच जाएगा, और परांठें वाला बन जाएगा।

सोमवार, 1 जून 2009

अनुवादक बनते पत्रकार ?

पिछली दो पोस्ट में आपने परांठें वाले पत्रकारों के बारे में पढ़ा। ये अंतहीन कथा है, जो चलती ही रहेगी। लंच टाइम में जिन चार पत्रकारों से ये कथा शुरू हुई थी, वे पहाड़ों पर होटल की योजना बना रहे थे, परांठें वाले भाई साहब अगुवाई कर रहे थे। आप जानते ही हैं कि पहाड़ी रास्ते से गुजरते हुए रास्ते में कई मोड़ आते हैं, थोड़ी देर के लिए ऐसा ही एक मोड़ परांठें वाले पत्रकार महोदय के जीवन में भी आया। पेशे से पत्रकार थे तो थोड़ा पढ़े लिखे भी थे। उनके स्कूल वाले मित्र भी अब ठीक ठाक जगह पर पहुंच गए हैं, सो जब वे अपने दफ्तर में काम कर रहे थे, तभी अचानक एक मेल आया जिसमें उनके पढ़े लिखे मित्र ने उनसे कुछ अनुवाद करने को कहा था, अंग्रेजी से हिंदी में। परांठें वाले भाई साहब अनुवाद तो करते थे, लेकिन अनुवाद के लिए समय इतना कम था कि उन्होंने साफ तौर पर ना तो नहीं कहा, हां भी नहीं कहा। वे अपने पत्रकार मित्रों से राय करने लगे। एक पेज अनुवाद करने की कीमत थी 200 रूपये और करीब 25 पेज अनुवाद करने थे। कंगाली के दौर में सबने हिसाब भी लगा लिया। करीब 5000 हजार रूपये बनते थे। कम नहीं होते पांच हजार रूपये। उसमें भी जब जेब खाली हो। परांठंे वाले पत्रकार के मित्र टूट पड़े अनुवाद करने पर। पूरे जोर शोर से शुरू हुआ अनुवाद का काम, लेकिन परिणति तक पहुंचना तो दूर, एक पेज होते होते मेरे अभिन्न मित्रों की सांस फूल गई। दरअसल, वो एक यूनिवर्सिटी का आॅर्डिनेंस था, जिसे हिन्दी में छापकर देना था। इतने तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल था कि माथे पर बल पड़ गए। और एक पेज अनुवाद में जिन व्यावहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा... आप सोच भी नहीं सकते। कमिटी, स्पोंसर, चेयरमैन, हाॅस्पीटिलिटी जैसे शब्दों का हिन्दी अर्थ जानने के लिए न्यूजरूम में आवाज लगानी पड़ रही थी। स्पोंसर का मतलब बताओ तो दूसरे की आवाज आती... अरे, जरा ...... का मतलब बताना तो। ऐसा नहीं है कि वे अनुवाद नहीं कर सकते, या नहीं जानते। बहुत ही काबिल और योग्य हैं मेरे दोनों मित्र। लेकिन इन दिनों दौर ही ऐसा चल रहा है कि ना तो कुछ समझ में आता है, और ना ही कोई समझने की कोशिश करता है। दरअसल, वो कहते हैं ना, खाली दिमाग, शैतान का घर। तो कुछ उसी तर्ज पर आजकल हमलोगों के साथ भी हो रहा है। खाली जेब, आराम का घर। यानी जेब खाली है तो ना कहीं जाना है, और जब कहीं जाना ही नहीं तो खर्चा क्या करना है। है ना सही बात! आराम का आराम और बजत की बजत।
आप ऐसा बिलकुल मत सोचिए कि हमने टाॅपिक बदल लिया है। ये तो पहाड़ी रास्ते पर आया एक छोटा सा मोड़ था, जिस पर थोड़ी दूर जाकर हम वापस लौट आएंगे, दरअसल इसी बहाने कुछ नयी जगहों का भ्रमण भी हो जाएगा। और पहाड़ी रास्तों से याद आया, अपना एक और मित्र छुट्टियों से वापस लौट आया है। वो अपने घर गया हुआ था, उसका घर भी पहाड़ों पर ही है। हिमाचल का रहने वाला है वो। फ्रेंच कट दाढ़ी रखता है, टीवी पर भी आता है, और स्मार्ट भी दिखता है, इस बार तो वो अपने डोले शोले बना कर लौटा है। ये मेरे उन दो मित्रों में से एक है, जो आज अनुवाद का काम करने की असफल कोशिश कर रहे थे। हम थोड़ा आगे तक होकर आते हैं, तब तक आप इसी मोड़ पर थोड़ी देर के लिए ठहरिए। जल्द वापसी की गारंटी है।