बुधवार, 26 जून 2013

घीसू कैसे जाएगा उत्तराखंड?

प्रेमचंद के घीसू और माधव रात सपने में आये थे। कह रहे थे-बबुआ हमलोगन को भी उत्तराखंड दौरे पर जाना है.. कोई रास्ता बताओ। मैंने कहा- घीसू काका, तुम्हारा तो पता नहीं लेकिन माधव तो हो भी आया। घीसू काका चौंके। चौड़ी हो रही आंखों में सवाल था। मानों पूछ रही हों-कब?

मैंने जवाब दिया- माधव ने ही तो गांधी परिवार में जन्म लिया है काका। अब तो उसी का राज है। घीसू काका ईर्ष्या से जल भून रहे थे। वो भी जाना चाहते थे उत्तराखंड। बेटा हो आया था। कंपीटिशन था। ठीक वैसा ही जैसा दोनों बाप-बेटों के बीच गरमा गरम आलू भकोस लेने का था (गर्भवती बहू अंदर प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी, लेकिन उसकी चिंता दोनों को नहीं थी)

पुनश्च: घीसू माधव चाहे जिसे समझिए, लेकिन प्रसव पीड़ा से तड़प रही गर्भवती बहू तो वहां फंसी जनता ही है...

मंगलवार, 25 जून 2013

'आफत के बीच मेले सा रोमांच!'

बौरा गया मीडिया... राहुल जी गुप्तकाशी में हैं... सुना फंस गये हैं... अब वे खबरों में हैं... पीड़ित पीछे छूट गये भैया... सब तरफ राहुल ही राहुल...
हे भगवान, कोई कुछ देता क्यों नहीं... कोई इनको समझाता क्यों नहीं.. गये क्यों थे... लाव लश्कर के साथ... तामझाम से लैस होकर... कोई मेला थोड़े ना लगा था कि बच्चे ने जिद कर ली... 'हमें तो मेला देखने जाना है और मां ने हिदायत देकर भेज दिया। बेटा, ध्यान से जाना। पानी बरस रहा है, पैर ना फिसल जाए!'

अरे! किसी ने मां को ही बता दिया होता- 'बहन जी, मेला नहीं लगा। आफत आई है... घूमने के लिए विदेश में जगह कम है क्या जो उत्तराखंड भेज रही हैं...' लगता है कांग्रेस के रागदरबारियों में ये सलाह देने की भी हिम्मत नहीं बची। और रही सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी। राहुल बाबा फंस गये ... गुप्तकाशी में फंसे राहुल बाबा - ब्रेकिंग न्यूज हो गई है। टीवी को क्या चाहिए... एक अदद चेहरा.. और राहुल से खूबसूरत और कुंवारा चेहरा कौन है? चेहरा चमका रहे हैं टीवी वाले... पीड़ितों की खबर ब्रेक के बाद...

(विषयांतर) सलमान खान ही हैं.. वो भी चर्चा में ही हैं

शुक्रवार, 7 जून 2013

टिप, टिप, टिप...


टिप... हेलमेट पर पहली बूंद पड़ते ही कानों में जोर की आवाज आई... टनाक। टिप, टिप, टिप... टनाक, टनाक, टनाक। हेलमेट बज रहा था। कान झेल रहे थे मोटी मोटी बूंदे। जब वे ऑफिस से निकले थे, तब तक बादलों ने पूरी दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। तेज हवाएं चल रही थीं, सड़कों पर धूल भरी थी, हेलमेट से कुछ दिख नहीं रहा था, शीशा उठाया तो आंखों पर सीधे धूल ने हमला कर दिया। उन्हें कहीं इंटरव्यू में जाना था, लेकिन ऐन मौके पर टाइम नहीं मिला तो घर निकल लिये। कुछ ही दूर चले होंगे कि बारिश। दिल्ली की तेज गर्मी के बाद की बारिश! तेज हवाओं की वजह से तापमान तो गिरा था लेकिन मौसम में गर्मी थी। और ऐसी वैसी नहीं, जोरदार। इतनी कि बादलों को भी पसीना आ गया। पहले तो कम रहा, लेकिन दिल्ली की गर्मी तो दिल्ली की ही है। देखते देखते पसीना चूने लगा। लगातार। अंधाधूंध। कुछ लोग इसे बारिश भी कहते हैं। काली सड़कें साफ होती दिखाईं दीं, लेकिन तेज हवाओं ने हरी भरी दिल्ली का कुछ हिस्सा काली सड़कों पर ला पटका और सड़कें हरी हरी काली सी हो गईं। बाइक वालों ने फ्लाई ओवरों और बस स्टाफ के नीचे जगह बना ली थी... सड़क पर सिर्फ कारें दिखाई दे रही थीं... छोटी कार, बड़ी कार, ऊंची कार, नीची कार, मोटी कार, चपटी कार... तरह तरह की कारें। उन कारों के बीच वे अकेले बाइक पर चले जा रहे थे। इस एहसास में कि चारों तरफ उनका काफिला चल रहा है और काफिले के बीच शहंशाह बाइक पर सवारी कर रहे हों। कंधे भीग चुके थे। बाजुएं तरबतर हो रही थीं, अचानक उन्हें अपने मोबाइल फोन का ख्याल आया और झट से बाइक किनारे करके उन्होंने उसे और अपने पर्स को पॉलिथीन के हवाले किया। शर्ट की बटन खोली और थैली शर्ट के अंदर। अब उनके चेहरे पर इत्मीनान था। बाइक फिर दौड़ रही थी। 60-70-80 की रफ्तार। दिल में डर भी कि बाइक फिसल ना जाये! कई दिनों से बाइक पर ही चिलचिलाती गर्मी में फ्राई होने के बाद उनके पास मौका था बारिश (बादलों के पसीने) में भीगने का।


पारा कभी 45 तो कभी 47। धरती सूखी हुई थी और सूखी हुई धरती को फिर से हरा भरा बनाने के लिए बादल मेहनत कर रहे थे तो पसीना तो आना ही था। पसीने का असर मौसम पर था। खुशगवार। उनके शरीर पर भी था। पहले शर्ट भीगी। फिर बनियान और फिर आत्मा तृप्त होती सी महसूस हुई। बरसों बाद। अकेले। बाइक पर भीगते हुए घर जाने का एहसास ऑफिस की मायूसी और खटपट पर भारी पड़ रहा था... लेकिन कुछ था जो पीछा नहीं छोड़ रहा था। पिछली कुछ बातें, कुछ यादें, कुछ सुनहरे पल उनके दिमाग में आ-जा रही थीं। बहरहाल। प्रगति मैदान से होते हुए वे रिंग रोड पर पहुंच चुके थे। उन्होंने एक बार फिर हेलमेट का शीशा उठाया लेकिन तेज हवाओं ने उन्हें बता दिया कि सही सलामत घर पहुंचना है तो शीशा बंद रखने में ही समझदारी है। राजघाट पर तीन मिनट की लाल बत्ती इंतजार कर रही थी। धीमी होती हुई बाइक जेब्रा क्रॉसिंग पर पहुंच कर रूक गई। इंजन बंद। नजरें आसमान पर। उन्होंने हेलमेट उतारा और चेहरे पर बूंदों को महसूस किया। इतने में उन्हें महसूस हुआ कि जूते पानी से लबालब भर गये हैं। मन ही मन सोचा जैसे पैरों में घड़ा बांध कर चल रहे हों। एक बार जूता उतारने का ख्याल मन में आया लेकिन अगले ही पल झटक दिया। प्रकृति के साथ चलने की छोटी सी कोशिश। पूरा शरीर तरबतर हो चुका था। गीलेपन का ये अनोखा सुखद अहसास था, बरसों बाद। कैसे छोड़ा जा सकता था। वे प्रकृति के साथ भरपूर रोमांस कर रहे थे। दिमाग में जो चल रहा था, उसे बिना हटाए वे बारिश का मजा ले रहे थे। उन्हें कुछ याद आ रहा था, लाँग ड्राइव, भाटी माइंस, सर्पीली चौड़ी सड़कें, दोहरे इंद्रधनुष... वो गलियां... इतने में पीछे से हॉर्न का शोर सुनकर यादों से ध्यान हटा तो देखा कि बत्ती हरी हो चुकी है और उनके पीछे खड़े लोग उन्हें खा जाने वाली नजरों से देख रहे हैं।


बाइक आगे बढ़ी। तेज। यादों का स्पीडोमीटर बाइक के स्पीडोमीटर से रेस करता हुआ। 50-60-70-80... आगे तेज मोड़ था। यादों पर ब्रेक के साथ ही बाइक की रफ्तार भी धीमी हुई, फिसलने का डर जो सता रहा था। इतने में हनुमान मंदिर आ गया। सामने ही निगम बोध श्मशान घाट भी है... एक अनजाना सा डर भी उनके मन में था। लेकिन इन दिनों डर के आगे ही जीत है। वे चले जा रहे थे। बस अड्डे के बाद जैसे बाइक ने सड़क को पहचान लिया हो। रफ्तार की सूई 80 से नीचे आ ही नहीं रही थी। वे कारों से रेस कर रहे थे। हेलमेट के शीशे पर जमा बूंदे रास्ता देखने में बाधक हो रही थीं, लेकिन वे रेस कर रहे थे। वजीराबाद फ्लाई ओवर से ठीक पहले उनके आगे-आगे एक काली कार चली जा रही थी। सड़क पर जमा पानी को चीरती हुई। वे उस पानी में खुद को भिगाना चाहते थे, अचानक लगा जैसे कार की रफ्तार कम हुई और वो बाईं तरफ मुड़ रही है, वे सहम गये थे। रफ्तार रेस वाली थी और संभलने का कोई मौका नहीं था... उन्होंने और रेस दी। जब तक कार उनके पास आती वे कार से आगे थे, लेकिन अब तक उनकी बाइक सड़क पर जमा दो फीट पानी में घुस चुकी थी। रफ्तार कम हो गई थी... अगर बाइक बंद हो जाती तो घर तक धक्का लगाना पड़ता। उन्होंने खट से गीयर बदला और एक नंबर लगा कर पूरा एक्सीलेटर घुमा दिया। घर्र-घर्र करती बाइक पानी से बाहर आ गई थी और उनकी सांस सदमे से। फ्लाई ओवर से उतरते-उतरते बारिश धीमी हो चुकी थी। हवा की ठंडक ने शायद बादलों का पसीना सुखा दिया था। वे चले जा रहे थे। घर अब भी 8 किलोमीटर दूर था। गीले हो चुके कपड़े सूख रहे थे। उनकी आत्मा तृप्त हो चुकी थी। पुरानी पड़ चुकी बाइक पर बारिश में करीब पैंतीस किलोमीटर का सफर रोमांस और रोमांच से भरपूर था। मौज भी थी और खतरा भी। लेकिन अब वे खतरों को जीना चाहते थे.. वे जीना सीख रहे थे...