कई बार कुछ बातें सिर्फ़ कहने के लिए कही जाती है,जिनका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन कई बार कुछ बातों का नही होते हुए भी मतलब होता है।
बुधवार, 26 सितंबर 2012
करोड़ों मांओं की चिंता
बात 1986 की है। ठेकेदारी के काम से पप्पा अक्सर बाहर ही रहते। एक दिन जब घर आए तो साथ में कुछ सामान था। लोहे के लाल लाल लंबवत दो बड़े बड़े बहुत भारी गोल डब्बे। और साथ में एगो चिपटा सा दिखने वाला चूल्हा। तीन मुहं वाला। बताए कि अब इसी पर खाना बनेगा। मां को लकड़ी और कोयले में आंख नहीं फोड़ना पड़ेगा। ललका डिब्बा को बोलते हैं सिलेंडर और ई है चूल्हा। एक बार में तीन चीज बन जाएगा। आधा घंटा में खाना तैयार होगा और राजन के मां को आराम मिलेगा। लेकिन ई चूल्हा चलेगा कैसे, 5वीं पास मां को पता ही नहीं चल रहा था। तब पप्पा ने अपने बैग से एक और डब्बा निकाला। डेढ़ मीटर लंबा हरा-हरा पाइप, लाल रंग का रेगुलेटर। और लाल प्लास्टिक से जुड़ा एगो छोटा सा स्टील का पाइप। पीछे बटन था। दबाने पर लुत्ती फेंकता था। सब को जोड़ जाड़ के चूल्हा तैयार किया और खास अंदाज में स्टील के पाइप को पकड़ कर बटन दबा दिया। चूल्हा भक्क से जला। मां खुश। अब मेहनत बचेगी। धुंआ में आंख नहीं फोड़ना पड़ेगा। चूल्हा जलते ही पप्पा ने आॅर्डर किया-चाय। मां ने तुरत-फुरत में बनाकर दे दी। मां चाय नहीं पीती। पप्पा के पास बैठकर पूछा- कितने का आया ई तामझाम। उन्होंने बताया- बाइस सौ (2200) में सब कुछा। 500-500 का सिलेंडर और 1200 का चूल्हा। मां की उत्सुकता खत्म नहीं हो रही थी। पूछा-जब इस पीपा का गैस खत्म हो जाएगा, तब ? जवाब मिला-‘सब हो जाएगा।’ फेर इसी में भर कर गैस आएगा। मां के हाथ नया - नया खिलौना लगा था। खूब जमकर खेली। 20 दिन में गैस खत्म। मां परेशान। राहत थी कि दूसरा सिलेंडर भरा था। पप्पा ने लगा दिया. तब सिलेंडर के लिए बुकिंग नहीं करवानी पड़ती थी। सिलेंडर इंडेन का था. हमारे गांव जियाराम राघोपुर से 40 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय सुपौल से आना था सिलेंडर। लेकिन दिक्कत यही थी कि वहां से सिलेंडर आएगा कैसे ? कोई 10 दिन और बीत गये. सिलेंडर नहीं आया। अभी कुछ ही घरों में रसोई गैस की सुविधा आ पाई थी। पांच परिवारों ने मिलकर एक रिक्शेवाले को सुपौल जाने के लिए राजी किया। उन दिनों 60 या 63 रुपये में एक सिलेंडर मिलता था। रिक्शेवाले ने मांगे 80 रुपये। अपना किराया-भाड़ा जोड़ कर। सबने खुशी खुशी दिये भी। फिर तो नियम बन गया। वो सुबह 5 बजे निकलता और शाम 7 बजे तक सिलेंडर लेकर वापस आ जाता। वापसी में बिना नागा पव्वा लगाना नहीं भूलता। तब कौन जानता था कि राहत की ये गैस एक दिन जेब जलाने लगेगी। जबसे मां को पता चला है कि पुराने दर (399 रु.) पर अब साल में सिर्फ 6 सिलेंडर ही मिलेंगे, बाकी बाजार भाव से (करीब 750 रु.) लेने होंगे, तब से उसकी परेशानी बढ़ गयी है। वो अब हिसाब लगाने में लगी है कि वो कितने सिलेंडर इस्तेमाल करती है, और अब कितने सिलेंडर बाजार भाव से लेने पड़ेंगे। बढ़ते बजट को देखकर उसकी चिंता बढ़ गई है। और ये चिंता सिर्फ मेरी मां की ही नहीं, बल्कि देश की करोड़ों मांओं की है।
2 टिप्पणियां:
prakash, mh1
ने कहा…
lekhni ki bhasha me desi bhasha ka prayog ise aur bhi padhne me maja de raha hai...carry on..
2 टिप्पणियां:
lekhni ki bhasha me desi bhasha ka prayog ise aur bhi padhne me maja de raha hai...carry on..
सारे भारत की चिन्ता के मूल को क्या खूब पकड़ा है आपने...
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