गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

औरों के भी दिन बहुरैं...

ट्रेन के जनरल डब्बों में या लोकल ट्रेन में सफर करने वालों को ही मालूम होता कि कितनी मुश्किल से जगह मिल पाती है। एक बार जगह बन जाए तो थोड़ी राहत मिलती है, लेकिन चिंता फिर भी नहीं मिटती। अपनी जगह बनने के बाद लोग अगले स्टेशन पर सवार होने वालों को जगह देने से कतराते हैं। क्योंकि उन्हें बैठने में दिक्कत होने लगेगी। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता नये यात्री भी जगह बना ही लेते हैं। फिर विरोध करने वाले भी विरोध छोड़कर उन्हें अपना लेते हैं। ये बात हर जगह लागू होती है। आम लोगों पर भी और राजनेताओं पर भी। कुछ ऐसा ही हो रहा है महाराष्ट्र में। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे भी महाराष्ट्र में नहीं जन्मे थे, मध्य प्रदेश से आए थे। लेकिन अब उन्हें मराठियों और महाराष्ट्र की चिंता खाए जा रही है। वे मराठियों की अस्मिता की रक्षा में लगे हैं। वैसे ही जैसे रेल यात्री दूसरों के सामान की रक्षा का ठेका लेते हैं। उन्हें मराठियों की चिंता है, लेकिन उनका अपना ही भतीजा घर तोड़कर चला गया है, उसकी उन्हें चिंता नहीं है। दरअसल वे दूसरे नेताओं की तरह ही ठाकरे बंधु भी मराठी के गर्म तवे पर पकाई हुई रोटी ही खा रहे हैं। इसलिए बाहर से आए नेताओं से इन्हें दिक्कत होने लगती है। इसलिए वे ऐसा दिखाते हैं कि मामला उत्तर भारतीय बनाम मराठी है। लोगों को भी लगता है कि ठाकरे किसी और को महाराष्ट्र में कमाने खाने नहीं देंगे। लेकिन ऐसा नहीं है, मामला शुद्ध रूप सिर्फ राजनीति का है। चाचा-भतीजा मिलकर राजनीति कर रहे हैं। कभी साथ मिलकर मराठी हितों की बात करते थे, अब अलग अलग मराठी हित के नाम पर अपने अपने हित साधने में लगे हैं। हम तो बस यही कह सकते हैं कि जैसे इनके दिन बहुरै, वैसे ही औरों के भी बहुरैं।

2 टिप्‍पणियां:

Dev ने कहा…

बहुत बढ़िया लेख .........आपने एक दम सटीक कहा ठाकरे परिवार ......राजनीती की रोटी खाने के लिए ये ढकोसला कर रहे है .

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

लेकिन ऐसा नहीं है, मामला शुद्ध रूप सिर्फ राजनीति का है। चाचा-भतीजा मिलकर राजनीति कर रहे हैं। कभी साथ मिलकर मराठी हितों की बात करते थे, अब अलग अलग मराठी हित के नाम पर अपने अपने हित साधने में लगे हैं।

बिलकुल सच कहा आपने....वैसे भी नेता अपना ही तो हित देखते हैं जनता का कहाँ?