एक तरफ तो देश के कुछ हिस्सों में बाढ़ की
विभीषिका देखने को मिल रही है, वहीं दूसरी तरफ उत्तरी भारत के
राज्यों में सूखे-से हालात बन रहे हैं। अनाज उत्पादन में देश के नंबर वन राज्य
पंजाब की हालत बद से बदतर होती जा रही है। मानसून ने दगा दे दिया है। बादल घुमड़ते
हैं, पर धरती की प्यास बुझाए बिना ही आगे बढ़ जाते हैं। राज्य
सरकार परेशान है। राजनीति गर्म। प्रदेश के राजनीतिक इतिहास को धता बताते हुए
लगातार दूसरी बार प्रदेश की कमान संभालने वाले प्रकाश सिंह बादल ने सोचा भी नहीं
होगा कि इस बार मानसून ही उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पेश करने वाला है। देर से आए
मानसून ने ‘बादल’ के माथे पर बल ला
दिये हैं। मानसून में उमड़-घुमड़ रहे बादल बिन बरसे ही चले जा रहे हैं, वहीं प्रकाश सिंह बादल के पसीने सूखने का नाम नहीं ले रहे हैं। मामला प्राकृतिक
है। जमीन वाले बादल कर भी क्या सकते हैं ? उन्होंने गेंद
केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है।
पंजाब में अब तक 32 फीसदी बारिश ही हुई है, यानी 68 फीसदी कम। जबकि देश में यह आंकड़ा सिर्फ 22 फीसदी का
है। परेशानी लाजिमी है। सूखे के आसार बनते देख प्रकाश सिंह बादल ने बहुत ही सेफ
गेम खेला है। उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की है कि ‘सूखे
को प्राकृतिक आपदा घोषित किया जाए। और कृषि पर आधारित राज्यों को आर्थिक पैकेज
देने की घोषणा करे। और केंद्रीय पूल में सबसे ज्यादा अनाज भेजने वाले राज्य के तौर
पर पंजाब को विशेष आर्थिक पैकेज दिया जाए।’ बादल की इस मांग
से हरियाणा को भी खास ऐतराज नहीं होगा। क्योंकि हरियाणा में भी बारिश की स्थिति
कमोबेश ऐसी ही है। यहां अब तक 30 फीसदी बारिश ही हुई है।
केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने की वजह से हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र
सिंह हुड्डा विनम्र विनती ही कर सकते हैं, ऐसे में सूखे को
प्राकृतिक आपदा घोषित करने की मांग से उन्हें भी राहत महसूस हुई होगी।
मानसून की सुस्त चाल ने प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह को भी परेशान कर दिया है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने सभी मंत्रालयों को
हर हफ्ते हालात की समीक्षा करने के निर्देश दिये हैं। हकीकत चाहे जो हो, लेकिन पीएमओ का कहना है कि सरकार ने हालात से निपटने के लिए विस्तृत
कार्ययोजना तैयार कर रखी है। हालांकि इन योजनाओं से कुछ होने-जाने की उम्मीद करना
बेमानी है। क्योंकि जब बाढ़ आती है, तब भी केंद्र और राज्य
सरकारों की तथाकथित तैयारियां धरी की धरी रह जाती हैं। और जब सूखे के हालात बन रहे
हैं, तब भी सरकारें सिर्फ और सिर्फ बयानों और योजनाओं में ही
डूबी दिखाई देती हैं। हम यवतमाल (महाराष्ट्र) और असम में बाढ़ का जानलेवा कहर देख
चुके हैं। मध्यप्रदेश के कई इलाके बाढ़ की चपेट में हैं। हालांकि अब भी यहां बारिश
सामान्य से नीचे ही है लेकिन जल भंडारण और वितरण की जो व्यवस्था है उसकी वजह से
जीवन रूपी जल काल बनता जा रहा है। सरकारी तैयारियों की पोल खुल चुकी है। दरअसल,
ये कथनी और करनी का फर्क है, जो जनता के लिए
अक्सर जी का जंजाल बन जाता है। इस बीच सूखे से निपटने के लिए कम बारिश वाले छह
राज्यों (हरियाणा, पंजाब, राजस्थान,
गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक) के वरिष्ठ
अधिकारियों के साथ केंद्रीय कृषि सचिव आशीष बहुगुणा ने 23
जुलाई को बैठक की थी। जहां कम बारिश की वजह से बड़े हिस्से में धान की बुआई नहीं हो
पाई है।
अप्रैल में मौसम विभाग ने बताया था कि
इस बार भी मानसून सामान्य रहेगा और देश अनाज उत्पादन में रिकॉर्ड बनाएगा, लेकिन लेट-लतीफ मानसून ने उम्मीद पर संकट के बादल गहरा दिये हैं। देश में
करीब 65 फीसदी खेती बारिश पर ही निर्भर है। इस बार अनाज
उत्पादन 25 करोड़ 74 लाख टन के करीब
रहने का अनुमान था। पिछले साल की तुलना में 1.27 करोड़ टन
ज्यादा। लेकिन इस उम्मीद पर भी पानी फिरता नजर आ रहा है। अब मौसम विभाग उम्मीद जता
रहा है कि अगस्त और सितंबर महीने में अच्छी बारिश होगी। लेकिन तब तक क्या बुआई का
समय बचा रहेगा? मानसून की लेटलतीफी कहीं किसानों के लिए खतरे
की घंटी तो नहीं है। क्योंकि कम बारिश का असर खेती पर पड़ने लगा है। धान, दलहन,
तिलहन और मोटे अनाज की बुआई लक्ष्य से पीछे चल रही है। नेशनल रिमोट
सेंसिंग सेंटर ने चेतावनी दी है कि कम बारिश की वजह से हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान,
बिहार और उत्तर प्रदेश में धान की बुआई की संभावना कमजोर हो रही है।
कृषि विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग का कहना
है कि ‘मानसून में देरी की वजह से खरीफ की प्रमुख फसलों की
बुआई का समय निकल गया है। ऐसे में कुछ जगहों पर भूजल का इस्तेमाल किया जा रहा है।
लेकिन जेनसेट के इस्तेमाल से लागत बढ़ जाएगी।’ हालांकि वे
कहते हैं कि ‘मूंग की दाल की कुछ किस्में 7 अगस्त तक लगाई जा सकती है। लेकिन अगैती या पछैती की पैदावार सामान्य खेती
से कम होती है। ऐसे में पछैती की पैदावार कम होगी। किसान की स्थिति और खराब हो
जाएगी।’ हालांकि डॉक्टर अनुराग अब सिर्फ पशुओं के चारे की
खेती पर ही जोर देते हैं। उनका कहना है कि ‘पशुओं के चारे से
दूध का कारोबार करनेवाले किसानों को सीधे तौर पर फायदा होने की गुंजाइश है।’
इस बार मानसून की शुरुआत ही 5
दिन देर से हुई। उसके बाद भी करीब एक हफ्ते तक मानसून तटीय इलाकों में ही रूका
रहा। उत्तर-पूर्वी राज्यों, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश,
महाराष्ट्र के विदर्भ और आंध्र प्रदेश के तेलंगाना और रायलसीमा में
अच्छी बारिश हुई है। लेकिन उत्तर भारत तक पहुंचते पहुंचते कमजोर पड़ गया और अब
हालात सूखे जैसे बन गये हैं।
मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने
पंजाब को केंद्रीय पूल से एक हजार मेगावाट ज्यादा बिजली देने की भी मांग की है।
दसूहा विधानसभा इलाके में संगत दर्शन कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि ‘केंद्रीय
ऊर्जा मंत्री से मिलकर पंजाब के लिए केंद्रीय पूल में से एक हजार मेगावाट अधिक
बिजली देने की मांग की है।’ पंजाब बिजली संकट से गुजर रहा
है। शहरों तक में अंधेरा पसरा है, गांवों की तो बात ही छोड़
दीजिए। ऐसे समय में जबकि पूरा देश बिजली की किल्लत से जूझ रहा है। नार्दर्न ग्रिड
फेल हो चुका हो। प्रधानमंत्री भी चिंता जता चुके हों। ऊर्जा मंत्री खुद स्थिति पर
नजर रखे हुए हैं, पंजाब को अतिरिक्त एक हजार मेगावाट बिजली
देना केंद्र सरकार के लिए भी मुमकिन नहीं होगा। लेकिन केंद्रीय विद्युत मंत्री से
मिलकर बादल ने अपना पल्ला झाड़ लिया है। अब सूखे की स्थिति को लेकर ना तो किसान उन
पर किसी तरह की लापरवाही का आरोप लगा सकते हैं और बिजली की किल्लत को लेकर न
उद्योगपति। बहुत ही सेफ गेम है।
दरअसल, हरियाणा, पंजाब सहित उपरी राज्यों में भी बारिश नहीं के बराबर ही हुई है। जिसकी वजह
से गोबिंद सागर में पानी उतनी मात्रा में नहीं है, जितना
होना चाहिए। इसका असर बिजली उत्पादन पर भी असर पड़ा है। भाखड़ा-नांगल पॉवर हाउस की
क्षमता 1325 मेगावाट की है। यहां से पैदा की जाने वाली बिजली
पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और गुजरात तक सप्लाई की
जाती है। लेकिन घटते जलस्तर ने भाखड़ा ब्यास प्रबंधन को चिंता में डाल दिया है।
भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड लगातार हालात पर नजर बनाए हुए है।
राजनीति से इतर ये मामला चिंतित करने वाला
है। हालात वाकई सूखे जैसे बन रहे हैं, लेकिन सरकारें अपने
बचाव में लगी हैं। पंजाब सरकार केंद्र के पाले में गेंद डाल कर निश्चिंत दिखाई दे
रही है, वहीं केंद्र ने साफ कर दिया है कि हालात से निपटने
के लिए विस्तृत कार्ययोजना बनाई जा चुकी है। अगर योजनाएं तैयार हैं, तो अमल कब होगा ? इसका जवाब शायद कार्ययोजना बनाने
वालों के पास भी नहीं है।
ये
लेख इतवार पत्रिका में छप चुका है.
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