गुरुवार, 18 जून 2009

ये विज्ञापन का नया अंदाज है...

ये विज्ञापन का जमाना है। जिसके बिना आज माल बेचना मुमकिन ही नहीं लगता। हर उपभोक्ता वस्तु का जोर शोर से विज्ञापन किया जाता है। कुछ भी इससे अछूता नहीं है। खाने की चीजें हो, नहाने की हो, पहनने की हो, खेलने की हो, सवारी की हो, माल ढोने वाली गाड़ी की हो या फिर घर बनाने के सामान की हो। हर चीज बेचने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है। ये गलत भी नहीं है। खासतौर से तब जब समाज उत्तर आधुनिक हो चुका है, जब लोगबाग टीवी, रेडियो, अखबारों या मीडिया के दूसरे माध्यमों से विज्ञापन देखकर ही अपनी जरूरतें तय करते हैं। या फिर उन पर मिलने वाली छूट देखकर ही सामान की जरूरत बढ़ाते और कम करते हैं। ऐसे में विज्ञापन जरूरी हैं। लेकिन विज्ञापन का मकसद क्या सिर्फ उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद की ओर आकर्षित करना भर है? माल बेचना भर है? क्या कंपनियों का इससे कोई वास्ता नहीं कि उनके विज्ञापनों से समाज पर क्या असर पड़ रहा है। लगता है, कुछ कंपनियों को है, और कुछ को नहीं है। या यूं कहिए कि कुछ कंपनियां अपने माल को आपकी सहानुभूति पाकर बेचना चाहती हैं, तो कुछ कंपनियां बेसिर-पैर की उटपटांग हरकतें दिखाकर। आपको ये बातें उल-जुलूल सी लग सकती हैं, क्योंकि आपने अपने टीवी पर इन विज्ञापनों को देखा तो है, उन पर गौर नहीं किया है। दो विज्ञापन एक साथ लीजिए। पहला तो है अंबूजा सीमेंट का, जिसमें एक ही परिवार में झगड़े के बाद दीवार खड़ी कर दी जाती है, और जब मौका आता है, तब इस खास सीमेंट से बनी दीवार टूटती ही नहीं। आखिर ‘अंबूजा सीमेंट’ से बनी दीवार जो है। दूसरा विज्ञापन है बिजली के तार का। कंपनी है हेवेल्स। इस विज्ञापन में एक छोटा सा लड़का अपनी मां को हाथ से आग पर रोटी सेंकते देखता है तो उसे तकलीफ होती है और वो इस कंपनी के तार को मोड़कर चिमटा बना लाता है, जिसे देखकर उसकी मां के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। अब दोनों विज्ञापनों का मर्म समझने की कोशिश कीजिए। पहले में जहां सीमेंट की वजह से दो भाईयों को परिवार चाह कर भी नहीं मिल पाता वहीं दूसरे विज्ञापन में बेटे से मां का दर्द देखा नहीं जाता और वो जुगाड़ तकनीक लगाकर अपनी मां को आराम पहुंचाता है। ये विज्ञापन आपको प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी की अनायास याद दिला जाता है, जिसमें छोटे से हामिद को उसकी दादी मेला घूमने के लिए चार आने देती है, और दूसरे बच्चे जहां मिट्टी के खिलौने खरीदते हैं, वहीं हामिद को याद आता है कि रोटी बनाते समय उसकी दादी के हाथ जल जाते हैं, इसलिए वो अपने पैसों से खिलौनों की जगह दादी के लिए चिमटा खरीद लेता है, और बच्चों को अपने हिसाब से उसका महत्व बताकर सबका हीरो भी बन जाता है। इन लाइनों का मकसद कहानी सुनाना नहीं है, बल्कि करीब करीब सौ साल पहले लिखी गई एक कहानी को आज के यथार्थ में देखना सुखद अनुभूति देता है (छोटे परदे पर ही सही।) क्योंकि एक तरफ ऐसी मजबूत सीमेंट है जो ईंटों में ऐसा जोड़ लगाती है कि दीवार नहीं टूटने देती, भले ही टूटे हुए रिश्ते जोड़ने में नाकाम हो, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा विज्ञापन भी है जो करंट के प्रवाह के लिए माध्यम तो जोड़ता ही है, रिश्तों को और भी प्रगाढ़ करता दिखाई देता है। गौर करने की बात है कि सीमेंट के दूसरे ब्रांड भी विज्ञापन करते हैं, लेकिन वे विकास को दिखाते हैं, उन बांधों को दिखाते हैं, जहां से हमें उपयोगी बिजली मिलती है। और तार का विज्ञापन दूसरे सीमेंट के विज्ञापनों की अगली कड़ी महसूस होता है। ऐसे में हमें ठहरकर थोड़ा सोचने की जरूरत है कि नकारात्मक सोच बनाने वाले विज्ञापन कितना कारगर हो पाएंगे, या फिर समाज में किस तरह की मानसिकता का निर्माण करेंगे?

6 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

bahut achhi baat !
badhaai !

manas mishra ने कहा…

good..ache vislesak ho....

deepak sharma ने कहा…

विज्ञापन का असर काफी बार उल्टा भी हुआ है आप को याद होगा sarkar ने एक विज्ञापन दिया था अक्ल की गोली जो गर्बनिरोधक थी पr अक्ल की गोली से जानी जाने लगी बचों ने chemist शॉप पर जा के मांगना शुरू कर दी ........शायद इस से हमारे bhadiya अंक आयें परीक्षा में
...... फिर इस विज्ञापन को ब्वापिस लिया गया

दिखावों पे मत जायो अपनी अक्ल लगाओ

Unknown ने कहा…

जाहिर है भाई.. लेकिन पोस्ट पहले से लिखी गयी लगती है... क्योंकि विज्ञापनों का युग आगे निकल गया है.. मेतो में विज्ञापन... डीटीसी की बसों के बहार लटकते विज्ञापन.. एस एम् एस पर आते विज्ञापन.... ये सिलसिला तो रुक ही नहीं रही... खैर दीपक जी ने सही कहा हमने भी एक विज्ञापन का उल्टा असर देखा था... भारत उदय... इंडिया शाईन कर गया और लोगों ने अपनी अकाल लगा ली...

Bhuwan ने कहा…

ख़ुशी हो या ग़म..
भावना, संवेदना
रिश्ते..
सब कुछ शामिल हो गए हैं
इन विज्ञापनों में..
कम्पनियाँ प्रोडक्ट बेचने के लिए
सभी मानवीय भावनाओं को बेचने के लिए तैय्यार हैं..
आखिर जो दिखता हैं
वही बिकता है..

Science Bloggers Association ने कहा…

बिन विज्ञापन सब सून।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }