सोमवार, 1 जून 2009

अनुवादक बनते पत्रकार ?

पिछली दो पोस्ट में आपने परांठें वाले पत्रकारों के बारे में पढ़ा। ये अंतहीन कथा है, जो चलती ही रहेगी। लंच टाइम में जिन चार पत्रकारों से ये कथा शुरू हुई थी, वे पहाड़ों पर होटल की योजना बना रहे थे, परांठें वाले भाई साहब अगुवाई कर रहे थे। आप जानते ही हैं कि पहाड़ी रास्ते से गुजरते हुए रास्ते में कई मोड़ आते हैं, थोड़ी देर के लिए ऐसा ही एक मोड़ परांठें वाले पत्रकार महोदय के जीवन में भी आया। पेशे से पत्रकार थे तो थोड़ा पढ़े लिखे भी थे। उनके स्कूल वाले मित्र भी अब ठीक ठाक जगह पर पहुंच गए हैं, सो जब वे अपने दफ्तर में काम कर रहे थे, तभी अचानक एक मेल आया जिसमें उनके पढ़े लिखे मित्र ने उनसे कुछ अनुवाद करने को कहा था, अंग्रेजी से हिंदी में। परांठें वाले भाई साहब अनुवाद तो करते थे, लेकिन अनुवाद के लिए समय इतना कम था कि उन्होंने साफ तौर पर ना तो नहीं कहा, हां भी नहीं कहा। वे अपने पत्रकार मित्रों से राय करने लगे। एक पेज अनुवाद करने की कीमत थी 200 रूपये और करीब 25 पेज अनुवाद करने थे। कंगाली के दौर में सबने हिसाब भी लगा लिया। करीब 5000 हजार रूपये बनते थे। कम नहीं होते पांच हजार रूपये। उसमें भी जब जेब खाली हो। परांठंे वाले पत्रकार के मित्र टूट पड़े अनुवाद करने पर। पूरे जोर शोर से शुरू हुआ अनुवाद का काम, लेकिन परिणति तक पहुंचना तो दूर, एक पेज होते होते मेरे अभिन्न मित्रों की सांस फूल गई। दरअसल, वो एक यूनिवर्सिटी का आॅर्डिनेंस था, जिसे हिन्दी में छापकर देना था। इतने तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल था कि माथे पर बल पड़ गए। और एक पेज अनुवाद में जिन व्यावहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा... आप सोच भी नहीं सकते। कमिटी, स्पोंसर, चेयरमैन, हाॅस्पीटिलिटी जैसे शब्दों का हिन्दी अर्थ जानने के लिए न्यूजरूम में आवाज लगानी पड़ रही थी। स्पोंसर का मतलब बताओ तो दूसरे की आवाज आती... अरे, जरा ...... का मतलब बताना तो। ऐसा नहीं है कि वे अनुवाद नहीं कर सकते, या नहीं जानते। बहुत ही काबिल और योग्य हैं मेरे दोनों मित्र। लेकिन इन दिनों दौर ही ऐसा चल रहा है कि ना तो कुछ समझ में आता है, और ना ही कोई समझने की कोशिश करता है। दरअसल, वो कहते हैं ना, खाली दिमाग, शैतान का घर। तो कुछ उसी तर्ज पर आजकल हमलोगों के साथ भी हो रहा है। खाली जेब, आराम का घर। यानी जेब खाली है तो ना कहीं जाना है, और जब कहीं जाना ही नहीं तो खर्चा क्या करना है। है ना सही बात! आराम का आराम और बजत की बजत।
आप ऐसा बिलकुल मत सोचिए कि हमने टाॅपिक बदल लिया है। ये तो पहाड़ी रास्ते पर आया एक छोटा सा मोड़ था, जिस पर थोड़ी दूर जाकर हम वापस लौट आएंगे, दरअसल इसी बहाने कुछ नयी जगहों का भ्रमण भी हो जाएगा। और पहाड़ी रास्तों से याद आया, अपना एक और मित्र छुट्टियों से वापस लौट आया है। वो अपने घर गया हुआ था, उसका घर भी पहाड़ों पर ही है। हिमाचल का रहने वाला है वो। फ्रेंच कट दाढ़ी रखता है, टीवी पर भी आता है, और स्मार्ट भी दिखता है, इस बार तो वो अपने डोले शोले बना कर लौटा है। ये मेरे उन दो मित्रों में से एक है, जो आज अनुवाद का काम करने की असफल कोशिश कर रहे थे। हम थोड़ा आगे तक होकर आते हैं, तब तक आप इसी मोड़ पर थोड़ी देर के लिए ठहरिए। जल्द वापसी की गारंटी है।

2 टिप्‍पणियां:

brijesh dwivedi ने कहा…

शब्दों के गाँव में आपका स्वागत है...
रोज़ साथ काम करते ..लेकिन बताया नहीं.. की ब्लोगेर बन गया हूँ... बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है... लिखते रहेये.... आगर मोका मिले तो कवि ब्रजेश ब्लॉग .स्पॉट . कॉम पर जरूर जाये....

Unknown ने कहा…

achha laga!
badhaiyan!