शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

एक था समाजवादी!

मित्रों, जानकर दुख होगा कि मेरे एक साथी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। वो करीब पैंतीस वर्ष का है, और उड़ीसा के बरगढ़ जिले का निवासी है। आप सोचेंगे कि सिर्फ पैंतीस साल की उम्र में ऐसा कैसे हो गया? दरअसल उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने के पीछे बात उम्र की नहीं बात सोच की है। वो एक समाजवादी है, कट्टर समाजवादी। दुनिया को उसने अपनी आंखों से नहीं, समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की आंखों से देखाा था। 1994 में बनाई उनकी पार्टी समाजवादी जनपरिषद से उसका जैसे सांसों का रिश्ता था। मुझे याद है समाजवादी जनपरिषद की जितनी भी गोष्ठियों में उसे देखा था, बिल्कुल साधारण वेषभूषा। एक निपट देहाती जैसी ही। और उस पर भी वो उड़ीसा का है, जहां गरीबी हर दूसरे कदम पर कदम मिलाती हुई दिखाई देती है। अभी कुछ देर पहले ही बरगढ़ से साथी ‘हर’ का फोन आया था, उसने ये दुखदायी सूचना दी। कलेजा मुंह को आ गया। मनोरंजन से पिछली मु लाकात दिल्ली में ही विद्यार्थी युवजन सभा के एक सम्मेलन के दौरान हुई थी। संगठन को आगे ले जाने के उसके विचार, उसकी नेतृत्व क्षमता, उसके ओजपूर्ण भाषण, उसके नाटक, उसका अभिनय और अभिव्यक्ति, हर बात ऐसे सामने आ गई, जैसे कल की बात हो। इसी महीने के आखिरी में धनबाद में विद्यार्थी युवजन सभा का राष्ट्रीय सम्मेलन होना है, लेकिन अब संगठन के अध्यक्ष की मानसिक हालत ठीक नहीं है, ऐसे में संगठन के सामने दुविधा की स्थिति है। लेकिन सवाल ये उठता है कि उड़ीसा जैसे राज्य में, जहां की आबादी में गरीब 70 फीसद से भी ज्यादा हैं, वहां समाजवादी सोच रखने वाला एक नौजवान आखिर क्यों मानसिक रूप से संतुलन गवां बैठता है? क्या कोई रास्ता नहीं बचा है? क्या उस जैसे सोचने वाले हर नौजवान की यही परिणति होनी है? साथी हर से ये खबर मिलने के बाद मुझे साथी मनोरंजन का पहनावा याद आ गया। घुटने से जरा सा नीचे का एक पैजामा, एक खादी का कुर्ता और एक गमछा। बस यही उसकी पूरी पोशाक थी। और ऐसा भी नहीं था कि उसके पास कई जोड़े कुर्ते पैजामे थे। एक जोड़ा जो वो पहनता था, उसके अलावा सिर्फ एक जोड़ा और होता, जो उसके कपड़े के ही झोले की शोभा बढ़ा रहा होता। और जब पहने हुए कपड़े धोए जाते तो वे जोड़े झोले से बाहर आते। बिलकुल समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। शोक मनाउं या फिर दिल को दिलासा दूं कि आज के समाजवादियों का चोला बदल गया है। लोहिया और जयप्रकाश के समय का समाजवाद अब नहीं रहा। अब मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह का समाजवाद बचा है जो लंबी लंबी कारों में चलता है। और उनके अलावा जो तथाकथित समाजवादी शिक्षक हैं भी उनके पास एक से ज्यादा कारें हैं, दिल्ली में ही एकाधिक मकान हैं, विदेशों में पढ़ा रहे हैं। मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि लोहिया और जयप्रकाश के समाजवाद का एक सिपाही धाराशाही हो गया है। पूंजीवादी ताकतों के सामने उसका प्रतिरोध इतने भर ही था, अब शायद उसकी आवाज कभी सुनने को ना मिले। ना तो मंच से और ना ही रंगमंच से। मैं भी डर गया हूं। और उड़ीसा में अपने दूसरे साथियों को ये सलाह दे रहा हूं कि अब ना उठाओ समाजवाद का डंडा। बस घर चलाओ, और जीवन यापन करो। देश ऐसे ही चलता रहेगा। किसी को कोई शिकायत न होगी, दुनिया भी अपनी तरह चलती रहेगी, किसी को कोई शिकायत न होगी।

2 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

इस में समाजवाद का दोष नहीं है। लेकिन समाजवाद के लिए जिस रीति और मार्ग से वे संघर्ष कर रहे थे उस में कुछ कमी अवश्य रही होगी। मैदान छोड़ कर भागने से कुछ नहीं होता। मंजिल के लिए रास्ते तलाशने होते हैं।

Unknown ने कहा…

बड़ी निराशा हुई भाई मनोरंजन की हालत का जानकर... आज शायद देश की हालत ही यही है कि कोई भी संवेदनशील और समझदार आदमी, ये हालत देखकर या तो बंदूक उठा ले या फिर चीख-चीख के दुनिया से पूछे कि क्या यही है हर मुंह को निवाला और हर हाथ को काम देने के वायदे.... क्या यही है आजादी...। आप उसके सवालों को सुन उसे चाहे मानसिक विक्षिप्त कहें या फिर पागल समाजवादी... उसके सवालों के जवाब आपके पास भी नहीं होंगे... लोग तो शायद उन सवालों को ज्यादा देर सुनना भी न चाहें क्योंकि उन्हे पता है अगर ये सवाल दिमाग में घर कर गए तो शायद वो भी मानसिक बीमार हो जांए....या शायद हारकर क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय की तरह आत्महत्या कर बैंठें....।।।।।।
www.nayikalam.blogspot.com