देश रावण को जलाने में व्यस्त था। अपने अंदर की बुराइयों से पूरी तरह अनजान।
नकाब ओढ़े हुए। किसी को कोई मतलब नहीं। हर साल की तरह इस साल भी बुराई का प्रतीक
रावण जला दिया गया। राम की जीत हुई। कृपया राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ना समझें।
वैसे शुभकामनाओं का, बधाइयों का
सिलसिला सुबह से चल रहा है। सिलसिला ही है, कोई इन पर अमल
नहीं करता। भारी और बड़ा काम है। इसीलिए शब्द ही खानापूर्ति कर देते हैं। सिर्फ शब्द ही
हैं, सरोकार नहीं। फिर इतना लिखने की वजह क्या है?
बताना सिर्फ इतना है कि विजयदशमी के दिन, गांधी जी की
जयंती से सिर्फ 2 दिन पहले #गुरुग्राम में
बुराई (गंदगी) पर जीत हासिल करने उतरे 3 जवानों ने
शहादत दे दी।
मेघनाथ, विभीषण और रावण के जलते पुतलों, बम-पटाखों के भयानक शोर के बीच उनकी
चीखें कहीं दब गईं। किसी को कुछ भी सुनाई नहीं दिया। कंपनी के सीवर की सफाई करने
उतरे तो 4 जवान थे, एक अभी जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा है।
सब कुछ डिजीटल हो रहा है। हाइटेक हो रहा है। अब तीर नहीं, बटन से रावण जलते
हैं।
सबसे ऊंचा रावण बनाने और जलाने की होड़ है। लेकिन भीतर के रावण का किसी को पता
ही नहीं चलता। जब चलता है, तो कहते हैं-छोड़ न, सब चलता है।
रिंकू, राजकुमार और नन्हें की मौत पर कहीं आवाज नहीं है। सीवर की गंदगी ही उनके
परिवार के भोजन का आधार थी। रावण के जल चुकने के बाद अब मैदान में सन्नाटा है। सड़कों
पर भीड़ है। लेकिन रिंकू, राजकुमार और नन्हें जैसे शहीदों की परवाह किसे है ?
मेरी, आपकी, आपके
रिश्तेदारों की, उनके रिश्तेदारों की गंदगी साफ करने वालों के लिए डिजिटल इंडिया
कब होगा? इंडिया शाइनिंग की शोशेबाजी एक बार फेल हो चुकी है।
क्या काठ की हांडी
बार-बार चढ़ेगी?